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________________ अनुभव प्रकाश अनुभाग करें उत्तर -योगो नहिरात्माको छोडकर भले प्रकार स्थिर अन्तरात्मा होकर अत्यन्त विशुद्ध अविनाशी परमात्माका ध्यान करै ॥१०॥ जो बहिरात्मा है, सो चैतन्यरूप आत्माकी देहके साथ सयोजम करता है और ज्ञानी देहको देहीसे पृथक् हो देखता है ॥११॥ ४ परोक्ष आत्माका प्रत्यक्ष कैसे करें ज्ञा/३३/४ अलक्ष्य लक्ष्यसबन्धात स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्ब तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ॥४॥ तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्वको प्रगटतया चिन्तवन करे कि लक्ष्य के सम्बन्धसे तो अलक्ष्यको और स्थूलसे सूक्ष्मको और सालम्ब ध्यानसे निरालम्ब वस्तु स्वरूपको चिन्तवन करता हुआ उससे तन्मय हो जाये । स.सा/ता वृ /११० परोक्षस्यात्मन कथ ध्यान भवतीति । उपदेशेन परोक्षरूप यथा द्रष्टा जानाति भण्यते तथैव ध्रियते जीयो दृष्टश्च ज्ञातश्च ॥१॥ आत्मा स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षो भवति केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्षमिति वक्तु नायाति । प्रश्न-परोक्ष आत्माका ध्यान कैसे होता है । उत्तर- उपदेशके द्वारा परोक्षरूपसे भी जैसे द्रष्टा जानता है, उसे उसी प्रकार कहता है और धारण करता है। अत: जीव द्रष्टा भी है और ज्ञाता भी है ॥१॥ आत्मा स्वस वेदनकी अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है और केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष भी होता है सर्वथा परोक्ष कहना नहीं बनता। स सा./ता.बृ/२६६ कथ स गृह्यते आत्मा 'दृष्टिविषयो न भवत्यमूर्तत्वात' इति प्रश्न' । प्रज्ञाभेदज्ञानेन गृह्यते इत्युत्तरम् । प्रश्न-वह आत्मा कैसे ग्रहण की जाती है, क्योंकि अमूर्त होने के कारण वह दृष्टिका विषय नही है। उत्तर-प्रज्ञारूप भेदज्ञानके द्वारा ग्रहण किया जाता है। अनुभव प्रकाश-पं दीपचन्दजी शाह (ई १७२२) द्वारा रचित हिन्दी भाषाका एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । अनुभाग-अनुभाग नाम द्रव्यको शक्तिका है। जीवके रागादि भावोको तरतमताके अनुसार, उसके साथ बन्धनेवाले कर्मोंकी फलदान शक्तिमें भी तरतमता होनी स्वाभाविक है। मोक्षके प्रकरणमें कोकी यह शक्ति ही अनुभाग रूपसे इष्ट है। जिस प्रकार एक द भी पकता हुआ तेल शरीरकी दमानेमें समर्थ है और मन भर भी कम गर्म तेल शरीरको जलाने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोडे भो कर्म प्रदेश जोवके गुणो का घात करनेमें समर्थ है, परन्तु अल्प अनुभाग युक्त अधिक भी कर्मप्रदेश उसका पराभव करने में समर्थ नहीं है। अत कर्मबन्धके प्रकरणमें कर्म प्रदेशोंकी गणना प्रधान नही है, मलिक अनुभाग हो प्रधान है । हीन शक्तिवाला अनुभाग केवल एकदेश रूपसे गुणका घात करनेके कारण देशधातो और अधिक शक्तिवाला अनुभाग पूर्ण रूपेण गुणका घातक होनेके कारण सर्वघाती कहलाता है। इस विषयका ही कथन इस अधिकार में किया गया है। * अनुभाग अध्यवसायस्थान । -दे. अध्यवसाय । * अनुभागकाण्डकघात । -दे, अपकर्षण ४ । २. अनुभागबन्ध निर्देश १. अनुभाग बन्ध सामान्यका कारण । २ शुभाशुभ प्रकृतियोके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्धके कारण। ३. शुभाशुभ प्रकृतियोंके चतु'स्थानीय अनुभाग निर्देश । * कषायोकी अनुभाग शक्तियाँ। -दे कषाय २ । * स्थिति व अनुभाग बन्धोकी प्रधानता।-दे. स्थिति ३ । * प्रकृति व अनुभागमे अन्तर । -दे प्रकृतिबंध ४। ४. प्रदेशोके बिना अनुभाग बन्ध सम्भव नही । ५. परन्तु प्रदेशोकी हीनाधिकतासे अनुभागको हीना धिकता नहीं होती। ३. घाती अघाती अनुभाग निर्देश १ घाती व अघाती प्रकृतिके लक्षण । २. घाती अघातीकी अपेक्षा प्रकृतियोका विभाग । ३. जीवविपाकी प्रकृतियोको घातिया न कहनेका कारण । ४. वेदनीय भी कथंचित् घातिया है। ५. अन्तराय भी कथचित् अघातिया है। ४. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश १. सर्वधाती व देशघाती अनुभाग निर्देश । २. सर्वघाती व देशघातीके लक्षण । ३. सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियोंका निर्देश । ४. सर्व व देशघाती प्रकृतियोंमे चतु स्थानीय अनुभाग । ५. कर्मप्रकृतियोमे यथायोग्य चतु स्थानीय अनुभाग । १ ज्ञानावरणादि सर्वप्रकृतियोकी सामान्य प्ररूपणा। २ मोहनीय प्रकृतिकी विशेष प्ररूपणा। ६ कर्मप्रकृतियोमे सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक शका समाधान । १ मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं ? २ केवलज्ञानावरण सर्वधाती है या देशघाती? ३ सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है ? ४ सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है ? ५ मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती वैसे है ? ६. 'प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती कैसे है? ७. मिथ्यात्वका अनुभाग चतु'स्थानीय कैसे हो सकता है ? ८. मानकषायकी शक्तियोंके दृष्टान्त मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंके अन भागोंमे कैसे लागू हो सकते है ? ___ * सर्वघातीमे देशघाती है, पर देशघातीमे सर्वघाती नही। -दे. उदय ४/२। १.भेद व लक्षण १. अनुभाग सामान्यका लक्षण व भेद । २ जीवादि द्रव्यानुभागोके लक्षण । ३. अनुभागबन्ध सामान्यका लक्षण । ४. अनुभाग बन्धके १४ भेदोंका निर्देश । ५. सादि अनादि ध्रुव-अध्रुव आदि अनुभागोंके लक्षण । ६. अनुभाग स्थान सामान्यका लक्षण । ७. अनुभाग स्थानके भेद। ८. अनुभाग स्थानके भेदोंके लक्षण । १. अनुभाग सत्कर्म; २. अनुभागबन्धस्थान; ३. बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान; ४. हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान;५.हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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