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________________ MAHILA MARKAMUNALA अमृत कुण्ड है और उस का जो मिष्ट-वचन है वह अमृत रस है जिस की रक्षा, जानु तक लंबा ऐसा मस्तक पर का केश-समूह रूप काला साँप निरंतर कर रहा है (अमृत की रक्षा सर्प करता है, यह प्रसिद्ध बात है।) इस के दोनों हाथ कल्पवृक्ष के जैसे हैं; क्यों कि जैसे कल्पवृक्ष की नीचे बैठनेवाले मनुष्य को किसी प्रकार का संताप नहीं होता वैसे इस की भुजा- छाया के आश्रय में रहने । वाले मनुष्य को भी किसी प्रकार का संताप नहीं होता है । कवि कहता है - इस । अकबर का वक्षःस्थल न जाने किस चीज का बना हुआ है ? यह पता नहीं लगता । क्यों कि एक तरफ तो इस का हृदय इतना कठोर मालूम देता है कि जिस में की गूढ बात किसी प्रकार बहार निकल ही नहीं सकती । और दूसरी । तरफ, दूसरे का दुःख देखते ही इस का अंतःकरण शीघ्र पिघल जाता है। छत्र, ध्वजादि शुभ लक्षणों वाले इस के सुंदर पैर अपनी शोभा से विकसित कमल को भी पराजित करते हैं। इस प्रकार इस के सभी अंग संपूर्ण सौन्दर्य वाले हो। कर देखने वाले के मन को अपूर्व आनंद देते हैं। अकबर अपने पिता का राज्य प्राप्त कर जगत् में विशेष विजय करने की इच्छा करने लगा। यह इच्छा लोभ के कारण नहीं परंतु पिता के यश की विश्व में ख्याति करने के उद्देश से उत्पन्न हुई थी। अच्छे मुहूर्त में इस ने दिग्विजय करने के लिये प्रयाण किया। प्रयाण करते समय सभी प्रकार के शुभ शकुन हुए। । अकबर के विजयनिमित्त प्रयाण को सुन कर बहुत से राजे कम्पित हो ऊठे और उन की लक्ष्मी भी चंचल हो गई। यह नियम ही है कि आधेय पदार्थ आधार ही। के पीछे गमन करते हैं । बादशाह ने, इन्द्र की सी शोभा को धारण कर, पहले पूर्व दिशा में प्रस्थान किया । नाना प्रकार के दुर्गम और अजेय दुर्गों को जीतता हुआ, अनेक राजाओं को वश करता हुआ, किसी का उच्छेद और किसी का भेद करता हुआ, जो अभिमानी था उस का मान उतार कर, नम्र हो जाने पर । फिर उसे अपने राज्य पर स्थापित करता हुआ और उन उन देशवासियों द्वारा भेंट किये गये पदार्थों का स्वीकार करता हुआ; अकबर, ठेठ पूर्व दिशा के समुद्र पर्यंत के देशों तक चला गया। ॥ वहां से बादशाह दक्षिण की और रवाना हुआ । इस तरफ के भी गर्विष्ठ नृपतियों को पहले अपमानित कर और फिर उन के नम्रता स्वीकार लेने पर पुनः सन्मानित किये । अपनी इस विजययात्रा में बादशाह ने प्रजा को जरा भी। Albandalaaman ALLIKARANAMAALANALIANIMAL HAMARIRAMMALAMAMAN ment-SAAMANANAKAMANANDHAMITARAMMARILAM InamaARRIORAININE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
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