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________________ 1. पूर्व भूमिका गुजरात विद्यापीठ से स्थानान्तर करने पर 1965 में मैं डा. हरिवल्लभ भायाणी का पड़ौसी बना । इससे पहले डा. प्रबोध पंडित की आज्ञा से ब्लूमफिल्ड पढ़ चुका था । गोलोकबिहारी धल तथा पंडितसाहब के लेखों की सहायता से विद्यापीठ में हिन्दी बी. एड्. के विद्यार्थियों को ध्वनिविज्ञान एवं अन्य शाखाएँ पढ़ाता था । भाषाविज्ञान के एक अच्छे विद्यार्थी तथा गुजरात के संदर्भ में बोलीविज्ञान के क्षेत्र में सविशेष कार्य करनेवाले डा. शान्तिभाई आचार्य मेरे मित्र रहे । उनके कारण भी भाषाविज्ञान की कुछ गतिविधियों से मैं अवगत रहता था । परन्तु 1973 तक तो सोचा भी नहीं था कि इस विषय से सम्बन्धित शोधकार्य करूँगा | खयाल था साहित्य-सर्जन और समीक्षा के क्षेत्र में ही कार्य करना होगा । शोधकार्य के प्रति आदर था अवश्य । पुरानी पीढ़ी के गुजराती आलोचक स्व. विश्वनाथ भट्ट के 1930 में प्रकाशित 'पारिभाषिक कोश' के द्वितीय शोधित वर्धित संस्करण की जिम्मेदारी उठाई थी, विद्यापीठ छोड़ने के कारण | यह 1966 की बात है। गुजराती भाषा के आलोचनात्मक तथा चिन्तनात्मक ग्रंथों के लेखकों ने जहाँ कहीं अंग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों के लिए गुजराती पर्यायों का प्रयोग किया हो, पहुँच जाना था। मैंने सम्बन्धित वाक्य चुने, कार्ड बनाये और विविध पर्यायों का तुलनात्मक अध्ययन किया । यह कोई बड़ा शोधकार्य नहीं था परन्तु इसमें प्राप्त होनेवाला आनंद बड़ा था । 1970 में भायाणीसाहब बम्बई युनिवर्सिटी के लिए शैलीविज्ञान विषयक व्याख्यान तैयार कर रहे थे । आधुनिक भाषाविज्ञान साहित्य-समीक्षा के निकट पहुँच चुका है इसका पता चला और प्रतीत हुआ कि साहित्यसमीक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए भी भाषाविज्ञान का प्रशिक्षण पाना होगा । इस अवबोध ने जिम्मेदारी बढ़ाई । बाद में हिन्दी विद्वानों के साथ 'गुजरात राज्य शाला पाठ्यपुस्तक मंडल' के लिए हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का संपादन करने की जिम्मेदारियाँ आईं । साहित्य को एक भाषिक संरचना के रूप में देखना अनिवार्य था । व्याकरण की दिशा से मैं हिन्दी - गुजराती क्रियाओं के बारे में सोचने लगा । लगा कि ऐसे किसी विषय में कुछ ठोस कार्य हो सके तो कितना अच्छा । शोधकार्य के संदर्भ में एक बार डा. अम्बाशंकर नागर ने बताया कि गुजरात युनिवर्सिटी के नियम 0-68 के अंतर्गत अनुस्नातक अध्यापन का पाँच वर्ष या इससे अधिक अनुभव रखनेवाला अध्यापक बिना किसी मार्ग - दर्शक के, स्वयं शोधकार्य कर सकता है । 'अनुभव' का 'मूल्य' पहली बार सामने आया, परन्तु दूसरे ही क्षण मैं सोच में पड़ गया : भाषाविज्ञान से सम्बन्धित शोधकार्य स्वयं करने का अर्थ होगा मौलिक गलतियाँ करना । भायाणीसाहब से मिला । वे सभी नये लेखकों के अनधिकृत किन्तु वास्तविक मार्गदर्शक तो हैं ही। सच्चे उपनिपदवादी । साथ बैठकर दूसरे ही दिन उन्होंने कार्य की रूपरेखा तैयार करवाई | दो जुलाई 1973 को मैं गुजरात युनिवर्सिटी में प्रस्तुत विषय का शोधछात्र बना ! 2. शोधपद्धति हिन्दी - गुजराती कोशों से क्रियाओं के कार्ड बनाना शुरू किया । प्रत्येक क्रिया की सभी अर्थच्छायाएँ का पर लिखता था । हिन्दी के 2364 तथा गुजराती के 2404 कार्ड बनाने में काफी समय गया। इस विषय के लिए समय देने का संतोष तो आरंभिक दो वर्षों में ही हो गया था परन्तु बौद्धिक जिज्ञासा संतुष्ट नहीं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016001
Book TitleHindi Gujarati Dhatukosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages246
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationDictionary, Dictionary, & Grammar
File Size15 MB
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