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________________ पूर्वकार्य का अध्ययन स्वभाविक और कृत्रिम तथा अकर्मक और सकर्मक जैसे भेद किए थे. फिर, सकर्मक के एककर्मक, द्विकर्मक और त्रिकर्मक - ऐसे तीन प्रकार माने थे. पं. कालीप्रसाद त्रिपाठी ने अपने 'भाषा-व्याकरण-दर्पण (1886 ) में कृत्रिम और स्वाभाविक के भेदों को मान्यता दी थी.. ___पं किशोरीदास वाजपेयी ने 'हिन्दी शब्दानुशासन' (1958) में एक शब्दप्रयोग किया है: 'उपधातु.' वे लिखते हैं : "मूल धातुओं से कुछ उपधातुएँ बन जाती हैं और फिर उन ‘उपधातुओं के प्रयोग उसी तरह होते हैं, जैसे कि मल धाओं के....जो कुछ उन धातुओं से बनता चलता है, वही सब इन उपधातुओं से. परन्तु स्वरूपभेद तो है ही. इस भेद के ही कारण तो 'उपधातु' इन्हें हम कहते हैं. इन उपधातुओं की दो श्रेणियां हैं. एक श्रेणी को तो हम मूल धातुओं का विकसित कह सकते हैं और दसरी को संकचित रूप. 'उपधात' से बनी क्रियाएँ प्रेरणा-प्रक्रिया में आती हैं और संकुचित-रूप 'उपधातु' से बनी क्रियाएँ 'कर्मकर्तृक क्रियाएँ' कहलाती हैं." पंडितजी ने संयुक्त क्रिया, नामधातु, किया की द्विरक्ति आदि की चर्चा भी की है. उनकी चर्चा वाक्यगत विशेष है. चटर्जी की तरह शास्त्रीय पद्धति से धातुओं का ऐतिहासिक वर्गीकरण वाजपेयी ने नहीं किया. 'उपधातु' शब्दप्रयोग भी स्वीकार्य नहीं लगता. एक वाक्य में लगता है कि वे यौगिक धातु को उपधातु कहते हैं परन्तु दूसरे वाक्य में इसकी दो श्रेणियाँ बताते है : (1) मूल धातुओं का विकसित रूप और (2) मूल धातुओं का संकुचित रूप. ये विकसित-संकुचित शब्दप्रयोग भी साधु नहीं हैं. दोनों श्रेणियों में परिवर्तन लक्षित होता है यही मूल बात थी और इसीलिए दोनों की श्रेणी एक ही थी. ____ आधुनिक हिन्दी का प्रारम्भिक व्याकरण-ए बेसिक ग्रामर आफ माडर्न हिन्दी' (1958) में आर्येन्द्र शर्मा ने प्रेरणार्थक क्रिया, संयुक्त क्रिया और नामधातु के विषय में कुछ उल्लेखनीय चर्चा की है. वाजपेयी जी और शर्माजी के बीच हुए व्याकरणिक विवाद ने इस विषय के छात्रों में बड़ी दिलचस्पी जगाई थी परन्तु प्रस्तुत विषय इससे लाभान्वित नहीं हुआ था. _1966 में प्रकाशित डा. ज. म. दीमशित्स की पुस्तक 'हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा' में स्वतंत्र मूल धातुओं को अव्युत्पन्न बताया गया है. यह वर्गीकरण मृल-यौगिक तथा सिद्ध-साधित की परंपरा का ही है. धातुओं के वर्गीकरण को भाषाविज्ञानियों ने वैयाकरणों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण समझा. पूर्वचर्चित चटर्जी महोदय के वर्गीकरण को अधिकांश भाषाविज्ञानियों ने ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया है परन्तु डा. भोलानाथ तिवारी ने उस वर्गीकरण में कुछ सीमाएँ देखी हैं. वे कहते हैं कि अनेक ध्वन्यात्मक धातुएँ आधुनिक काल में अनुकरण (धड़धड़) से बनी हैं किन्तु कुछ परंपरागत रूप में संस्कृत से भी (खटखट) चली आ रही हैं. इन दोनों को ऐतिहासिक दृष्टि से एक साथ नहीं रखा जा सकता. इन धातुओं को ध्वन्यात्मक कहने में भी भोलानाथ जी को आपत्ति है क्योंकि 'जगमगाना' जैसी धातुएँ, ध्वन्यात्मक नहीं हैं. गुजराती में 'ध्वन्यात्मक' के लिए रवानुकारी' शब्द प्रचलित था, आधुनिक भाषाविज्ञान के विद्वान अब 'अनुकरणात्मक' शब्द का प्रयोग करते हैं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016001
Book TitleHindi Gujarati Dhatukosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages246
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationDictionary, Dictionary, & Grammar
File Size15 MB
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