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________________ २०३ आ. विश्लेषण तथा निष्कर्ष विषय में उल्लेखनीय अध्ययन किया है । जैसे कि अपभ्रंश-कालीन कृदंतों से कई हिन्दी - गुजराती धातुओं का निकलना । हिन्दी की सभी नामधातुएँ गुजराती में नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि गुजराती में नामधातुएँ कम हैं । विदेशी शब्दों से बनी हिन्दी तथा गुजराती नामधातुओं की भिन्नता इस स्थिति का विशेष स्पष्ट करती है । तद्भव धातुओं में से कौन सी धातु किस समय संज्ञा, विशेषण या अव्यय से बनी इसका विशेष अध्ययन भी रसप्रद हो सकता है । यहाँ द्वितीय खण्ड के धातुकोश में नाम - धातुओं के व्यापक वर्ग का केवल निर्देश किया है, इनकी अलग से वर्गीकृत सूची आवश्यक नहीं लगी। क्योंकि ऐसा करने पर फिर संयुक्त क्रियाओं का प्रश्न खड़ा होता और विषयक्षेत्र बड़ा हो जाता, व्याकरणिक अध्ययन अनिवार्य हो जाता । केवल इस गणना से ही संतोष माना है कि हिन्दी में 865 नामधातुसँ हैं जब कि इनके विकल्प के रूप में यहाँ गुजराती की 247 नामधातुएँ तथा 283 संज्ञा, विशेषण, अव्यय जैसे तुलनीय रूप प्राप्त होते हैं । शब्दों में क्रियावाचक शब्दों की दिया है। वास्तव में यह अंग्रेजी आदि भाषाओं के बने हैं बल्कि 1.6 हिन्दी - गुजराती के देशज बहुतायत है 2 | - विशेल के इस निर्देश ने देशज धातुओं के अध्ययन का महत्त्व बढ़ा 'देशज' संज्ञा एकार्थक नहीं है । जैसे विदेशी शब्द-वर्ग के अंतर्गत अरबी, फारसी, सभी भाषाओं के शब्दों का समावेश किया जाता है वैसे ही देशज शब्द - वर्ग के अंतर्गत एकाधिक शब्दों का समावेश है । अंतर इतना ही है कि ये शब्द अज्ञात रहकर इस व्यापक वर्ग के अंग वैयाकरणों द्वारा बनाए गए हैं। इन देशज धातुओं को 'देशज' न कहकर 'अज्ञात व्युत्पत्तिक' कहने का सुझाव भोलानाथ तिवारी आदि विद्वानों ने दिया है । यहाँ प्रश्न यह होता है कि आज जो धातुएँ अज्ञातव्युत्पत्तिक कही जाएगी वे क्या सदा-सर्वदा अज्ञातव्युत्पत्तिक ही रहेंगी । हेमचन्द्र द्वारा देखज बताई गई कई धातुएँ अब ज्ञातव्युत्पत्तिक होकर तद्भव के रूप पहचानी जाती हैं। इस क्रम को प्रस्तुत शोधकार्य से (विशेष करके डा. भायाणी के परामर्श के कारण ) कुछ गति मिली है। संभव है बची हुई देशज धातुओं में से भी कुछ को भविष्य में भिन्न अभिधान प्राप्त 1 मुण्डा तथा द्रविड भाषाओं के विशेष अध्ययन से भी शक्यता बढेगी । में 1.7 अन्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की अपेक्षा गुजराती के अध्ययन के लिए एक विशेष सुविधा यह है कि हेमचन्द्र द्वारा दिए गए उदाहरणों में अपभ्रंश और पुरानी गुजराती के बीच की कडियाँ देखी - परखी जा सकती हैं । परन्तु इसकी भी एक सीमा है। डॉ. हरिवल्लभ भायाणी के अनुसार गुजरात के पांडित्य को प्रतिष्ठित करने के आशय से हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती व्याकरणों के आधार से एक अद्यतन पाठ्यपुस्तक के रूप में 'सिद्धहेम' अपभ्रंश - व्याकरण लिखा था। इस में दिए गए उदाहरण विभिन्न प्रदेश तथा काल के लक्षण सूचित करते हैं । इसलिए हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत सामग्री छाँटकर ही गुजराती भाषा के इतिहास-लेखन के आधार तैयार किए जा सकते हैं । इस शोधकार्य में हिन्दी - गुजराती की तद्भव, देशज तथा अनुकरणात्मक धातुओं के तुलनात्मक वर्गीकरण से फलित साम्य, दोनों भाषाओं के इतिहास-लेखन का एक पराक्ष, छोटा-सा किन्तु महत्त्वपूर्ण आधार बन सकता । 1.8 संस्कृत की जो धातुएँ किसी आधुनिक भारतीय आर्यभाषा के प्राचीन काल में ग्रहण न होकर आधुनिक काल में ग्रहण की गई और जिन्होंने रूप - विकार धारण किया इन्हें यहाँ (डा. ग्रियर्सन तथा चटर्जी महोदय के निर्देशानुसार ) अर्धतत्सम कहा गया है। पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने 'अर्धतत्सम' शब्द प्रयोग का मखौल उडाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016001
Book TitleHindi Gujarati Dhatukosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages246
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationDictionary, Dictionary, & Grammar
File Size15 MB
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