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________________ और गुजराती साहित्य उसके विशेष ऋणी हैं। कन्नड़ के, नहीं केवल स्वयंभू के उनके राम समन्वय के का प्रारंभिक साहित्य जैनों की रचना है। दार्शनिक प्रतीक हैं । सत्य, अहिंसा, विश्वकल्याण, जाति-विहीन चिन्तनधारा को रसने अधिकाधिक युक्ति संगत, तर्कपूर्ण मानवता और समन्वयवादी के प्रतिफलन हैं। और वैज्ञानिक रखने का प्रयत्न किया है। समन्वयवादी आज भी भारतीय समाज की विकृतियां उसे दर्बल दृष्टिकोण ने उसे कभी भी असहिष्णु नहीं बनाया। और हीन बना रही हैं। भ्रष्टाचार, नैतिक-पतन और कला के क्षेत्र में भी मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, अति भौतिकवादिता ने भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल नैन कलाकारों ने और दमकते रूप पर मलिनता का प्रावरण डाल रखा प्रचुर योग दिया है। बक्सर, सिंहभूमि उडीसा. बन्देल- है । विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया इन विकृतियों के पंक खण्ड और मथुरा में प्राप्त मूर्तियों के अतिरिक्त, श्रवण । में फंस गई है। विश्व शान्ति के लिए भारतीय स्वर नहीं बेलगोला-कारकल की विशाल गोमटेश्वर की प्रतिमा सबल हो पा रहा है। क्योंकि उसके विचारों और अपने ढंग की अनूठी है। उड़ीसा की हाथी गुफा के सिद्धान्तों को स्वर देने वाला गला फटा हमा है। घर में भित्तिचित्र जहां ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के माने ही सिद्धान्तों और प्राचरण के विरोधाभास ने विश्व जाते हैं। वहां ग्वालियर के पास चट्टानों पर जैन मूर्तिकारों के सामने उसका फटा हुमा व्यक्तित्व प्रस्तुत किया है। के नमूने १५वीं सदी तक के उपलब्ध हैं । इन विकृतियों के सुधार का बोझ वैदिक काल से ही जैन तीर्थंकरों और मुनियों पर रहा है । प्राचार्य तुलसी दसवीं शताब्दी तक के सम्पूर्ण सामाजिक प्रान्दो और उनके ही सदृश जैन मुनियों और प्राचार्यों ने जिस लनों को हिन्दू, बौद्ध या जैन मुनियों द्वारा नेतृत्व अणुव्रत-सामाजिक आन्दोलन का श्रीगणेश किया है प्रदान किया गया। ऋषभदेव से लेकर सोमदेव तक वह उसी सुधारवादी आन्दोलनों से प्रथम-प्रथम गति और वशिष्ठ से लेकर शंकर तक सभी ऋषि थे, मुनि थे। शीलता मिली, पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर ने प्राधनिक भारत के निर्माताओं में महात्मागांधी जिलको बल दिया और पाज प्रणवत पान्दोलन के सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हैं । उनका सन्पूर्ण जीवन रूप में जिसने नया मोड़ लिया है । जैन संस्कृति तप ऋषिकल्प रहा है। विश्व-मानव और अन्य प्राणियों और सदाचार से पूर्ण उस सोहागे का कार्य करती रही के कल्याणार्थ उन्होंने जिस सत्य और अहिंसा को है जो भारतीय संस्कृति के स्वर्ण को समय-समय पर अपनाया उस पर वैष्णवों और जैन मुनियों तथा खरा बनाने में, दीप्तिमय और विकृति रहित करने में. परम्परानों का समान प्रभाव दिखाई पड़ता है । सामा- सहायक रही है। यही उसकी महत्त्वपूर्ण देन रही हैं जिक व्यवस्था को प्रादर्श माना वह न तो केवल और युग धर्म के सतत परिवर्तनों के मध्य आज भी वाल्मीकि के राम हैं, न तुलसी के, न कबीर के, न कम्बन अपनी छाप लगाने का कार्य सम्पन्न कर रही है। जीवितात्तु पराधीनात् जीवानां मरणं वरम् । मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने ॥१॥ 'वादीभसिंह' पराधीन जीवन जीने की अपेक्षा जीवों का मर जाना श्रेष्ठ है। जंगल में सिंह को सिंहत्व किसने दिया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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