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________________ नैतिक सद्गुण अधिकारों तथा कर्तव्यों के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान होना नैतिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व रखता है। न तो हम किसी व्यक्ति को केवल अधिकार देकर उसके व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं और न ही बार २ कर्तव्य की दुहाई देकर किसी को नैतिक बना सकते हैं । अधिकारों तथा कर्तव्यों का उद्देश्य नैतिकता का निर्माण और सच्चरित्रता का संचार है । यह उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है, जब मनुष्य के स्वभाव में नैतिकता स्वच्छन्दरूप से प्ररस्फुटित हो उठे और जब उसे सदाचारी बनने के लिए न तो बाहरी प्रदेशों की जरूरत हो और न ही वह किसी प्रकार के अधिकारों की उपेक्षा करता हुआ नैतिक जीवन में पिछड़ा हुआ रह जाय । नैतिक व्यक्ति वही है, जो सर्वगुण सम्पन्न है, जिसकी श्रादतें इस प्रकार स्थिर हैं कि नैतिक कर्तव्य का पालन करना उसका स्वच्छन्द व्यवहार बन जाता है । सद्गुण सम्पन्न अथवा धार्मिक जीवन ही सम्पूर्ण जीवन है । जिस व्यक्ति में सद्गुण स्थित हो जाते हैं, उसके लिए सदाचार उसके व्यक्तित्व का प्रान्तरिक अंग बन जाता है और स्थितप्रज्ञ बन जाने के कारण उसका जीवन अधिकार और कर्तव्य का सुन्दर समन्वय बन जाता है । सद्गुरण शब्द के दो प्रकार के अर्थ किए जाते हैं । विस्तृत दृष्टिकोण से सद्गुरण को मानवीय चरित्र की कोई भी उत्कृष्ट अवस्था एवं मानवीय श्रेष्ठता कहा जा सकता है । इसी दृष्टिकोण से सद्गुण का अर्थ शक्तिमत्ता है । अतः हम सद्गुरण को वह गुण मानते हैं जो कि किसी भी प्रकार की श्रेष्ठता होती है । जब हम यह कहते हैं कि अमुक श्रौषधि में यह गुण है, तो हमारा कहने का अभिप्राय यह होता है कि इसमें एक विशिष्ट प्रभाव है । इसी दृष्टि से हम शूरवीरता, साहस श्रादि को सद्गुण कहते हैं । यूनानी दार्शनिकों ने भी सद्गुण की ऐसी ही व्याख्या की थी और मानवीय चरित्र के गुणों Jain Education International को मूल्य माना था । इन सद्गुरणों की विशेषता यह है कि ये सरलतम हैं और इनमें व्यापकता है। ये सद्गुण निम्नलिखित हैं : (१) विवेक (३) संयम • डा. ईश्वरचन्द्र शर्मा (२) साहस (४) न्याय ये चारों सद्गुण निस्सन्देह सर्वमान्य हैं और आज तक भी विश्व में इनको वही मान्यता दी जाती है, जो कि इन्हें प्राचीनकाल में प्राप्त थी । वैदिक, जैन, बौद्ध एवं अन्य सभी धर्मों ने इन पर जोर दिया है । यद्यपि कुछ आलोचकों ने इन सद्गुणों की निरपेक्षता के प्रति आपत्ति की है, तथापि सरलता की दृष्टि से यह सूची स्वीकार करने योग्य है । यह भी कहा जाता है कि प्रथम सद्गुण विवेक के अन्तर्गत अन्य सभी सद्गुण सापेक्ष हैं । एक दृष्टि से विवेक की व्यापकता को स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक सद्गुण पर आधारित क्रिया वही होती है जो विवेकपूर्ण होती है । यही कारण है कि सुकरात ने सद्गुरण को ज्ञान माना था । For Private & Personal Use Only विवेक, साहस, संयम तथा न्याय चारों सद्गुणों को स्वतन्त्र और मुख्य माना गया है। इनमें विषमता होते हुए भी समानता का तत्त्व उपस्थित रहता है । श्राधारभूत एवं मुख्य सद्गुण वास्तव में उन मानवीय गुणों तथा संस्कारों की अभिव्यक्ति हैं जो कि नीचे के स्तर के मूल्यों की अपेक्षा ऊंचे स्तर के मूल्यों के निर्वाचन की क्रिया के द्वारा विकसित होते है । उदाहरणस्वरूप, साहस को ले लीजिए। यह एक ऐसा संकल्प का गुण है जो कि भय अथवा शारीरिक दुःख की उपस्थिति में भी मनुष्य को दृढ़ता देता है । यह सद्गुरण सदैव स्वलक्ष्य होने के कारण प्रशंसनीय होता है और इसके मूल्य का स्तर उतना ही ऊंचा होता है, जितना कि वे मूल्य ऊंच होते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए भय श्रथवा दुःख का www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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