SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना सन्तुलन नहीं खोते थे । एक बार बाल्यावस्था में महावीर की सभा ही जब वे अपने साथियों के साथ उद्यान में बाल सुलभ भगवान महावीर जहां उपदेश देते थे उस सभा को खेल खेल रहे थे तो उन्होंने सामने से आते हुये भयंकर समवसरण कहा जाता था। वहां बैठने के लिये १२ कक्ष विषधर को उठा कर फेंक दिया था। जबकि उनके अन्य नियत थे जिनमें मुनि, प्रायिका, मनुष्य एवं स्त्रियों के साथी उसे देखकर ही भाग खड़े हुये थे। अतिरिक्त पशु पक्षी भी पाकर धर्म श्रवण करते थे। उन शिक्षा एवं गृहत्याग की इस सभा में मनुष्य मात्र को पाने का अधिकार था वे जब पढने लगे तो शीघ्र ही सब ग्रन्थों का अध्ययन तथा जाति, धर्म एवं वर्ण का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। कर लिया। उनकी प्रखर एवं गतिशील बुद्धि को देखकर परम अहिसक प्रशम मूर्ति एवं क्षमाशील तीर्थङ्कर के शिक्षक भी दंग रह जाते लेकिन महावीर ने अपने प्रभाव से समवसरण में आये हुये विरोधी प्राणी भी अपने विशिष्ट ज्ञान होने का कभी गर्व नहीं किया । वे जातिगत विरोध को भूल जाते और उनके पावन उपदेश सुन्दरता में कामदेव को भी लज्जित करते थे। जब वे का पालन करत थ । वन विहार एवं नगर दर्शन के लिए निकलते तो प्रजा महावीर की भाषा उनके मनमोहक-सौंदर्य को देखकर फूली नहीं समाती। महावीर तीर्थकर थे । उनकी वाणी दिव्य ध्वनि बड़े बड़े राजा महाराजा महावीर के विवाह के लिये कही जाती है । भगवान की वाणी की भाषा अर्ध अपनी २ राजकुमारी को देने का प्रस्ताव रखते। इस मागधी थी जो उस समय की जनसाधारण की प्रिय एवं तरह आये दिन विवाह के प्रस्ताव पाते लेकिन वे उन्हे बोलचाल की भाषा थी। यद्यपि संस्कृत का भी उस सदैव टालते रहते। अन्त में उन्होंने तीस वर्ष की समय काफी प्रचलन था लेकिन अर्धमागधी जन-साधारण अवस्था में निर्ग्रन्थ साधु की दीक्षा लेने के अपने निश्चय की भाषा होने के कारण भगवान महावीर ने इसी भाषा को सब के सामने रख दिया। माता त्रिशला रोने लगी में ही उपदेश देना प्रारम्भ किया । यह प्रथम अवसर एवं सिद्धार्थ असमंजस में पड़ गये । उन्हें बहुत समझाया था जब एक सर्वोपरि धार्मिक नेता ने बोलचाल की भाषा गया अनेक प्रलोभन दिखलाये गये । राज्य शासन समाप्त में अपना प्रवचन दिया इसलिये महावीर के धर्म की पोर ' का डर दिखलाया गया तथा साधु जीवन में आने शीघ्र ही लाखों भारतवासी उनके अनुयायी होगये। वाली विपत्तियों को गिनाया गया। लेकिन भगवान महावीर अपने निश्चय पर अटल रहे और मंगसिर बूदी भगवान महावीर ने सर्व प्रथम 'जीमो और जीने दो' १० को वे घरबार छोड़ कर निर्ग्रन्थ बन गये। यानी अहिंसा धर्म को अपनाने एवं उसे जीवन में तपस्वी जीवन उतारने का उपदेश दिया। सब जीवों के समान प्रात्माऐं १२ वर्ष तक महावीर स्वामी ने घोर साधना एवं हैं । जैसे हमारी प्रात्मा को दुःख होता है वैसा ही दुःख तपस्या की। उनका तपस्वी जीवन रोमांचकारी था। दूसरों की प्रात्मा को भी होता है। अहिंसा सब धर्मों का वे महीनों तक ध्यानस्थ रहते । वे जंगलों की कन्दरानों मूल है । कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों ही प्रकार में मौन साधे हये खडे रहते । भूमि पर शयन करते। की हिसा से मनुष्य को बचना चाहिए । वस्तुतः अहिंसा उन्हें एकान्त वास प्रिय था । वे प्रात्म ध्यान में तल्लीन ही धर्म का सार है । अतः महावीर ने अपने प्रवचन में रहते और जीवन-मरण के प्रश्न पर तथा प्रात्म तत्व अहिंसा को ही सर्वप्रथम स्थान दिया। पर विचार किया करते । अन्त में १२ वर्ष के पश्चात् उन्होंने सर्व जाति सम भाव का मंत्र फूका । सभी उन्हें पूर्ण ज्ञान होगया । और भूत भविष्यत वर्तमान की जातियाँ समान हैं । जन्म मात्र से न कोई ऊँचा है और समस्त घटनायें साक्षात्कार होने लगी । अब उनके ज्ञान न नीचा । नीच-ऊंच तो अपने कर्मों से होता है। के बाहर कोई वस्तु नहीं रही । वे सर्वज्ञ कहलाने लगे। उच्चकुल में जन्म लेने मात्र से किसी की पूजा करना एवं नासर बुदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy