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________________ १०० मोक्षमार्ग प्रकाशक में नौ अधिकार हैं; प्रथम अधिकार में पुराण आदि ग्रन्थों की रचनाएं की हैं। इस सभी में मंगलाचरण व अन्यान्य बातें दूसरे में कर्म, तीसरे में प्रात्मा के अनुभव व विलास का वर्णन है। दीपचन्द की संसार के दुःख, चौथे में दर्शन ज्ञान और चारित्र का शैली उपदेश-प्रधान रही है । वाक्य छोटे-छोटे हैं । मिथ्यात्त्व, पांचवें में विविध मतो का खंडन, छटे में भाषा मुहावरेदार तथा अलंकारिक है । "जोरावरी कुदेव, कुगुरु व कुधर्म का निरूपण, सातवें में जैन ठीकरी कौ रुपयो चलावै, चौरासी को बन्दीखानों आदि मतानुयायी मिथ्यातियों का स्वरूप आठवें में अनुयोग मुहावरे बड़े अच्छे हैं। रूपकत्त्व की नियोजना भी लेखक और नवें अधिकार में जिन-मतानुसार मोक्ष-मार्ग का को बड़ी प्रिय है; एक-दो उदाहरण देखिये। स्वरूप वरिणत है। 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में टोडरमल __"सद्गुरु बचन-अंजन ते पटलदुरि भये ज्ञान-नयन साम्प्रदायिक आडम्बर तथा वंशानुगत ऊचनीच मानने प्रकाशै तब लोकालोक दरसै । . के घोर विरोधी परिलक्षित होते हैं । विभिन्न मतों की चर्चा करने में लेखक जहां एक दर्शन-वेता प्रतीत होते "इस पर-परिणति नारी सौं ललचाये कुमति-सखी हैं वहां उनका खंडन करने में अच्छे ताकिक और स्वतंत्र संग गति गति मैं डोले निज परिणति राणी के वियोग विचारक भी। पिता का उदाहरण देकर ईश्वर के कर्तत्व त बहुत दुःखी भये ।'' का निराकरण करने में लेखक की सूझ-बूझ देखिए । अपने दार्शनिक विचारों को समझाने के लिए "सो जैसे कोई पुरुष प्राप कुचेष्टा कर अपने दीपचन्द ने लौकिक उदाहरणों का बड़ा सहारा लिया है। पनि को सिखावै. बहरिवैतिस चेष्टा रूप प्रवर्ते तब "जैसे कोई राजा मदिरा पीय निन्द्य स्थान में रति उनको मारै तो ऐसा पिता को भला कैसे कहिए । तैसे मान से चिदानंद देह में रति मानि रहया है" ११ ब्रह्मादिक आप काम क्रोध रूप चेष्टाकरि निपजाए लोकनिकै प्रवृत्ति करावै; बहुरि वे लोक तैसे तैसे प्रवत्तै तब जैसें श्वान हाड़को चाबै अपने गाल तालु मसूढ़े सोमानिया माहित नावाने का रक्त उतरें ताकों जाने भला स्वाद है, ऐसे मूढ प्राप का फल शास्त्रनि विसे लिख्या है सो ऐसा प्रभू का भला दुःख में सुख कल्प है।" १२२ कैसे मानिए।" __उक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि ढूंढाड़ी गद्य -दीपचन्द कासलीवाल सांगानेर में उत्पन्न हुए थे। साहित्य के विकास में जैन लेखकों का अपूर्व योग-दान कुछ समय बाद ये वहां से आमेर आगये थे । दीपचन्द ने है। हिन्दी साहित्य की समृद्धि के लिए उसका सम्यक् अनुभव प्रकाश, आत्मावलोकन, चिद्विलास, परमात्म अध्ययन व मूल्यांकन परम अनिवार्य है। ८. जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित मोक्ष मार्ग प्रकाशक पृ० १४५ है. परमानंदजी द्वारा संपादित अनुभव प्रकाश, पृ.३७ १०. वही, पृ० ६८ पृ० २३ १२. वही, पृ० ८० वही, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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