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________________ ६० करना है । किसी भी वस्तु के विषय में पूरी श्रद्धा प्राप्त किए बिना उसके प्रति आकर्षण लगाव अथवा अनुरक्ति पैदा नही होसकती। श्रद्धा प्राप्त करने के बाद ही उसके प्रति मनुष्य का झुकाव होता है । उस श्रद्धा के बाद ही ज्ञान की सचाई प्रकट होती है और उसे चिंतन, मनन प्रादि के द्वारा सफल बनाया जाता है। श्रद्धा के बिना ज्ञान कभी सच्चा नहीं होता। इसी को सम्यक् ज्ञान कहते हैं। लेकिन वह चिन्तन, मनन प्रथवा ध्यान भी निरर्थक है, जिस को जीवन व्यवहार अथवा चरित्र में पूरा नहीं उतारा जा सकता। जीवन व्यवहार अथवा चरित्र ही मन्तिम सोड़ी है। वैदिक संस्कृति के अनुसार स्तुति प्रार्थना मोर उपासना का भी यही अभिप्राय है । वैदिक संस्कृति का मुख्य आधार 'ब्रह्म' अथवा 'परमेश्वर' है । मानव जीवन का सारा व्यवहार उसके अनुसार ब्रह्म अथवा परमेश्वर की प्राप्ति के लिए ही किया जाना चाहिए । उसकी प्राप्ति को ही मानव जीवन का परम लक्ष्य और परम पुरुषार्थ माना गया है। पहली सीढ़ी उसके लिए उसकी स्तुति है । अभिप्राय यह है कि उसके गुणों को भली प्रकार जानने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे मानव के सम्मुख सणी बनने के लिए ऊचे से ऊंचा आदर्श उपस्थित होसके। उनके विचारकों का तो मत यह है कि मानव जीवन के लिए आदर्श इतना अधिक ऊंचा होना चाहिए कि उसको कभी पूर्णरूप में प्राप्त ही न किया जा सके जिससे कि साधारण मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील बना रहे। पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद ही साधारण मनुष्य उसके सम्मुख अपनी प्रार्थना उपस्थित कर सकता है 'ब्रह्म' अथवा 'परमेश्वर' के गुणों को जानकर सद्गुणी बनने का प्रयत्न करने वाला ही उपासना का अधिकारी बनता है। उपासना का अभिप्राय है 'उपासन' अर्थात् ग्रात्मा में परमात्मा की ऐसी प्रतीति या अनुभूति पैदा होना, जो भक्त को भगवान के समीप पहुंत्रा दे । साधारण लौकिक व्यवहार में भी यह देखने में आता हैं कि साधारण मनुष्य अपनी किसी इच्छा या अभिलाषा की पूर्ति के लिए जिसके पास जाना चाहता है, पहले उसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करता है, उस जानकारी | Jain Education International के आधार पर जब उसको यह विश्वास होजाता है कि उसके द्वारा उसकी इच्छा या प्रभिलाषा की पूर्ति हो सकती है, तब वह उसके पास अपना प्रार्थना पत्र लेकर जाता है और प्रार्थना पत्र स्वीकार होजाने के बाद उसको उसके पास बैठकर काम करने के लिए एक छोटा सा प्रासन या स्थान मिल जाता है । यही है वह उपासना या उपासन की स्थिति, जिसके लिए वह सारा प्रयत्न अथवा पुरुषार्थं करता है। इस प्रकार भ्रमण और वैदिक दोनों ही दृष्टियों से धर्म की आत्मा उसके अनुरुप आवरण करने में निहित है। धर्म के नाम से जो भी व्यवस्था की जाती है, उसका उद्देश्य यही होता है मानव के लिए उसके अनुकूल श्राचरण करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती । धर्माचरण के मार्ग को सरल, प्रशस्त और निष्कटक बनाने के लिए ही धर्म के नाम से विविध प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक विधि-विधान बनाए जाते हैं। शासन व्यवस्था में जिस प्रकार कानूनी व्यवस्था की जाती है और हमारे देश में जिस प्रकार 'इंडियन पिनल कोड' अथवा 'ताजीरातहिन्द' की व्यवस्था की गई है, ठीक इसी प्रकार धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में धर्म के नाम से सदाचार सम्बन्धी विधि-विधान का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण इस धर्म व्यवस्था के लिए भी शासन शब्द का प्रयोग किया गया है। धार्मिक शासन व्यवस्था का सम्बन्ध मानव की अन्तरात्मा के साथ अधिक है। उसको बाहर से थोपने की अपेक्षा उसके पालन की प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव अन्तरात्मा से ही होना चाहिए प्रश्न यह है कि विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में इस सम्बन्ध में जो व्यवस्था की गई है, वह कितनी सरल, कितनी बुद्धिगम्य और कितनी तर्क सम्मत है । एक को ऊंचा बताकर दूसरे को नीवा बताने की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करना अभीष्ट नहीं है । परन्तु मानव के लिए उपादेय दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन श्रावश्यक होजाता है । । वैदिक संस्कृति का आधार वैदिक संस्कृति का साधार मुख्यतः चार वेद है। उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ पुराण तथा अन्य ग्रन्थ सहायक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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