SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राणावाय के अवतरण की परम्परा - सामान्य जन-समाज तक प्रारणावाय की परम्परा कैसे चली इसका स्पष्ट वर्णन दिगंबराचार्य उग्रादित्य के "कल्याणकारक" नामक प्रारणावाय ग्रन्थ के प्रस्तावना-अंश में मिलता है। उसमें कहा है- भगवान् प्रादिनाथ के समवशरण में उपस्थित होकर भरत चक्रवर्ती यादि भव्यों ने मानवों की व्याधिरूप दुःखों से छुटकारे का उपाय पूछा। इस पर भगवान ने अपनी वारणी में इसका उपदेश दिया। इस प्रकार प्राणावाय का ज्ञान तीर्थकरों से गणधरों, प्रतिगणधरों ने उनसे श्रुतकेवलियों के और उनसे बाद में होने वाले धन्य मुनियों ने क्रमशः प्राप्त किया । प्राणावाय की परम्परा मध्ययुग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी। "कल्याणकारक" ही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ मिलता है जिसमें प्राणावाय की प्राचीन परम्परा और उसके शास्त्र ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। इसकी रचना चालुक्य और राष्ट्रकूट राज्य के काल में 8वीं शती के अन्त में हुई थी । इस काल के बाद किसी भी प्राचार्य या विद्वान ने "प्राणावाय" का उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया । दक्षिण भारत में तो फिर भी घाटवीं शती ई० तक प्राणावाय के ग्रन्थ मिलते हैं परन्तु उत्तरी भारत में तो सब एक भी प्राणावाय का प्रतिपादक प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। इससे ज्ञात होता है कि यह परम्परा उत्तर में बहुत काल पूर्व में ही लुप्त हो गयी थी । फिर ई० 13वीं शती से हमें जैन धावकों और पति-मुनियों द्वारा निर्मित प्रायुर्वेदीय ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । ये ग्रन्थ प्रारणावाय-परम्परा के नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें कहीं पर भी प्राणावाय का उल्लेख नहीं है । इनमें पाये जाने वाले रोगनिदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन प्रायुर्वेद के अन्य ग्रन्थों के समान है। ये ग्रन्थ मौलिक, संग्रहात्मक टीका, पचमय भाषानुवाद प्रादि अनेक रूपों में मिलते हैं । दक्षिण में प्राणावाय परम्परा के समय 8वीं शती तक ही रसायन चिकित्सा अर्थात् खनिज द्रव्यों और पारद के योग से निर्मित धौषधियों द्वारा रोगनाशन के उपाय अधिक प्रचलित हुए। दक्षिण के सिद्धसम्प्रदाय में यह चिकित्सा विशेष रूप से प्रचलित रही है। जंन यतिमुनियों ने स्वेच्छा से राजा या धनी-मानी व्यक्ति के आज्ञा-पाव से तथा जैन धावकों ने इन वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। करटक में जैन वैद्यक ग्रन्थों की सबसे प्राचीन परम्परा मिलती है। 8वीं शती के अन्त में दिगम्बर पाचार्य उग्रादित्य ने "कल्याणकारक" की रचना की थी। उसमें पूर्ववर्ती साहित्य के रूप में पूज्यपाद के शालाक्य, पात्रस्वामी के शल्यतंत्र सिद्धसेन के विष और उग्र ग्रहशमन, दशरथगुरु के काय चिकित्सा, मेघनाद के बालरोग और सिंहनाद के वाजीकरण और रसायन सम्बन्धी ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। समन्तभद्र के अष्टांगों सम्बन्धी प्रायुर्वेद ग्रन्थ का भी उल्लेख है। कल्याणकारक छप चुका है। कन्नड भाषाओं में मंगराज ने स्थावर विष चिकित्सा पर "खगेन्द्रमणिदर्पण" ( 1360 ई०) देवेन्द्र मुनि ने "बालग्रहचिकित्सा", श्रीधरसेन ने "वैद्यामृत" ( 1500 ई०) बाचरस ने "अश्ववैद्यक" 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014037
Book TitleInternational Jain Conference 1985 3rd Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages316
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy