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________________ प्रागम साहित्य का समय ई० स० पूर्व पांचवीं शताब्दी से ई० स० की पांचवीं शताब्दी तक एवं शौरसेनी पागम साहित्य का समय ई० स० की प्रारम्भिक शताब्दियों से दसवीं-बारहवीं शताब्दी तक का माना जाता है। प्रागम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य एवं चरिणों के रूप में जो टीका साहित्य मिलता है उसकी भाषा अर्धमागधी-शौरसेनी मिश्रित महाराष्ट्री प्राकृत भाषा है। इसमें प्रागमों के विषयों पर ही चर्चा मिलती है एवं उसकी एक विशेषता यह है कि यह अनेक प्राचीन एवं नवीन कथाओं से परिप्लावित है। इस साहित्य का समय ई० स० के प्रारम्भिक काल से छठी शताब्दी तक का माना जाता है। जैन धर्म सम्बन्धी पांचवीं से से दसवीं शताब्दी तक का ऐसा विशिष्ट साहित्य भी मिलता है जिसमें जैन सिद्धान्त, दर्शन-खण्डन-मण्डन, कर्म सिद्धान्त, श्रावक-प्राचार, सामाचारी, विधिविधान प्रादि विषयों पर व्यवस्थित एवं लम्बी चर्चायें उपलब्ध होती हैं। इसके पश्चात् जिस साहित्य का निर्माण हुआ वह विविध प्रकार का है जिसमें कथा एवं काव्य का स्थान महत्वपूर्ण रहा है और इसका प्रतिनिधित्व मुख्यत: महाराष्ट्री एवं अपभ्रंश भाषाओं ने किया है। इस साहित्य की अनेक विधाएं एवं विषय इस प्रकार गिनाये जा सकते हैलघुकथा, महाकथा, कथा-कोष, प्रौपदेशिक, मनोरंजक एवं उपहासात्मक कथाएं, रोमान्स कथा, रामायण, महाभारत, चरित और पुराण, मुक्तककाव्य, खण्डकाव्य, रूपकात्मककाव्य, मह चम्पूकाव्य एवं नाटक (सट्टक), योग, ध्यान, अध्यात्म, कर्म सिद्धान्त, क्रिया काण्ड, प्राचार, व्याकरण, छन्द, कोष, अलंकार, स्तुति स्तोत्र, सुभाषित, स्वप्न, निमित्त, ज्योतिष, वास्तुविद्या, रत्नपरीक्षा इत्यादि । इस सारे साहित्य में कथा-साहित्य की विपुलता है। धर्म एवं नीति के प्रचार के लिए कथा एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है। अत: लोकरुचि को ध्यान में रखकर समय-समय पर जनसाधारण में प्रचलित कथानों पर पर्याप्त ग्रन्थ लिखे गये। कभी-कभी तो एक ही कथा पर पचास जैन विद्वानों ने रचना कर डाली। दान, दया, तप, व्रत, शील, पूजा इत्यादि का माहात्म्य प्रदशित करने के लिए अनेक प्रौपदेशिक कथा ग्रन्थों का कथा कोषों के रूप में सजन किया गया। इसके अलावा चरित साहित्य की रचना हुई जिसमें तीर्थंकरों और अन्य शलाकापुरुषों, प्राचार्यों एवं अनेक काल्पनिक व्यक्तियों का समावेश होता है। इस साहित्य में अनेक मनोरंजक एवं हास्य कथाएं भी उपलब्ध होती हैं। कथा साहित्य मुख्यतः लोकाभिमुख होने के कारण इसमें विविधकाल की भाषाकीय विशेषताएं स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। महाराष्ट्री एवं अपभ्रंश के बाद प्राधुनिक भाषाओं के संक्रमण की अवहट्ठ भाषा का उदय होता है। इसमें प्राचीन हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि का समावेश होता है। यह काल बारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक का माना जाता है। इस काल का जो साहित्य मिलता है उसमें भी जैनों का साहित्य प्रमुख है। इस भाषा में विविध प्रकार का साहित्य इस प्रकार है-रास, चर्चरी, फागु, बारहमासा, छप्पय, विवाहलु, चउप्पई, कक्क, वर्णक, धवलगीत, विनति, संवाद, 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014037
Book TitleInternational Jain Conference 1985 3rd Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages316
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size12 MB
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