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________________ है कुछ भी शेष नहीं रहने पर पराधीनता, प्रसमर्थता शेष नहीं रहती। असमर्थता का शेष न रहना ही वीर्य है। इस प्रकार मोह के मिटने से जड़ता, कामना, राग (ममता ), द्वेष (भेदभिन्नता) क असमर्थता का अन्त हो जाता है, जिससे उसे अनन्त दान. प्रनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्य की उपलब्धि होती है। प्रश्न उपस्थित होता है कि वीतराग के पास एक दाना भी नहीं होता है, तब फिर वह क्या दान देता है ? वह अनन्त दानी कैसे है ? तो कहना होगा कि वीतरागी पुरुष संसार के समस्त प्राणियों को विषय सुख की दासता के तथा पराधीनता के सुख में आबद्ध देखता है उसका हृदय इस पराधीनता की पीड़ा से संवेदनशील होकर करुणित हो जाता है। सभी प्राणियों को पराधीनता की पीड़ा से छुड़ाने के लिए वह अपना योगदान देता है। पराधीनता से छूटने का नाम ही मुक्ति है । केवली प्राणियों को मुक्ति प्राप्ति का ज्ञान-दान करने में प्रयत्नशील रहता है। यही उसका धनन्त दान है । तात्पर्य यह है कि वीतराग की सर्व कल्याणकारी भावना अनन्त दान है। वीतरागी को लेशमात्र भी कमी का अनुभव नहीं होता। यही उसका धनन्त लाभ है। वीतरागी को लेशमात्र भी नीरसता का अनुभव नहीं होता। यही उसका अनन्त भोग है। उसकी सरलता सदैव ज्यों की त्यों बनी रहती है, प्रतिक्षण उसमें नवीन रस का अनुभव होता है । यही उसका अनन्त उपभोग है । उसे अपने अभीष्ट की प्राप्ति में और अनिष्ट की निवृत्ति में लेशमात्र भी प्रसमर्थता नहीं होती। यही उसका प्रनन्त वीर्य है । ये पांचों उपलब्धियां मोह के सर्वथा क्षय होने पर ही सम्भव हैं। अतः मोहनीय कर्म के पूर्णतः क्षय होने पर ही कैवल्य की उपलब्धि होने के पूर्ववर्ती क्षरण में इनकी भी उपलब्धि होती है । श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थाना साधना भवन, बजाज नगर जयपुर (राजस्थान) जैसे दीर्घकाल तक संचित ईंधन को पवन सहित धन्ति तुरन्त भस्म कर देती है, वैसे ही ध्यानरूपी श्रग्नि अपरिमित कर्मरूपी ईंधन को क्षणभर में भस्म कर देती है । व्यक्ति जागरूकतापूर्वक चले, जागरुकतापूर्वक बड़ा रहे जागरूकतापूर्वक बैठे, जागरूकता पूर्वक सोए। ऐसा करता हुधा तथा जागरूकतापूर्वक भोजन करता हुआ और बोलता हुआ व्यक्ति अशुभ कर्म को नहीं बचता है। 38 Jain Education International 504 For Private & Personal Use Only समजसुसे, 395 www.jainelibrary.org
SR No.014037
Book TitleInternational Jain Conference 1985 3rd Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages316
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size12 MB
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