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________________ 2. जब कोई कहता है "काली गाय" उस समय एक विशेष गाय का बोध होता है, साथ ही गाय जाति का भी बोध होता है। काली कहने में एक विशेष कालेपन के साथ सभी प्रकार के कालेपन का बोध होता है । इस प्रकार हर वस्तु सामान्य-विशेष रूप है। सामान्य से अलग करके विशेष को नहीं देखा जा सकता और न विशेष से अलग करके सामान्य को जाना जा सकता है। 3. सामान्य और विशेष को न्याय-वैशेषिक ने एक दूसरे से भिन्न माना है। किन्तु सामान्य का प्रत्येक व्यक्ति से कथंचित् तादात्म्य होने से कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता का सम्बन्ध होता है। कथंचित् तादात्म्य से तात्पर्य है एक सीमा तक तादात्म्य । यदि सामान्य का व्यक्ति से पूर्ण तादात्म्य होगा तब तो दोनों में एकरूपता आ जाएगी। किन्तु सामान्य का विशेष के साथ एकरूपता नहीं होती। जिस सीमा तक तादात्म्य रहता है, उस हद तक सामान्य और विशेष में अभिन्नता होती है और जिस हद तक तादात्म्य नहीं होता वहां तक भिन्नता होती है । यद्यपि व्यक्ति के रूप में एक दूसरे से अन्तर होता है किन्तु उसमें जो गुण या सामान्य होता है उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए सामान्य और विशेष एकान्तत: भिन्न नहीं माने जा सकते। ये भिन्नाभिन्न हैं। वाच्य-वाचक वाच्य उसे कहते हैं जिसकी वाचना होती है। पदार्थों की वाचना होती है। शब्दों के द्वारा वाचना होती है। उन्हें जैनदर्शन वाचक मानता है। सामान्य-विशेष की समस्या न केवल वाच्य तक है, बल्कि वाचक के सम्बन्ध में भी यह प्रश्न उठता है कि वाचक यानी शब्द क्या है ? सामान्य या विशेष । जैन दर्शन में शब्द को पौद्गलिक माना गया है। शब्द पुद्गलों से बनते हैं । पुद्गल में सामान्य और विशेष दोनों होते हैं । इसलिए शब्द में भी सामान्य और विशेष होते हैं अर्थात् शब्द सामान्य रूप है और निरपेक्ष भी। किन्तु न्याय-वैशेषिक इसका खण्डन करते हैं। न्याय-वैशेषिक शब्द को पौदगलिक नहीं मानते हैं और इसके लिए वे निम्नलिखित तर्क पेश करते हैं 1. शब्द का प्राधार अाकाश होता है जो स्पर्श-शून्य होता है । 2. शब्द सघन प्रदेश में प्रवेश करते हुए और उससे निकलते हुए बाधित नहीं होता अर्थात उसके सामने कोई रुकावट नहीं पाती है। 3. उसका कोई अवयव दृष्टिगोचर नहीं होता जो उसके पहले अथवा बाद भी रहे। 4. वह सूक्ष्म मूर्त द्रव्यों का प्रेरक नहीं है। 5. शब्द आकाश का गुण है। इन तर्कों का जैनाचार्य इस प्रकार खण्डन करते हैं--- 1. शब्दों का प्राधार आकाश नहीं बल्कि भाषावर्गणा है। भाषावर्गणा पुद्गल से बनती है । जिस प्रकार गन्ध आश्रित द्रव्य-परमाणु हवा की अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार एक 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014037
Book TitleInternational Jain Conference 1985 3rd Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages316
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size12 MB
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