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________________ 1-32 उन्होंने 12 वर्ष और 13 पक्ष की लम्बी अवधि देवतामों के इन्द्र ने सभक्ति प्रणाम छिया तो के मुहूर्त भर नींद ली। उनका शेष अधिकांश पुलकित नहीं हुए और चण्डनाग के दंशन से समय ध्यान में बीता। 16 दिन तक वे सतत् माकुल । अतः उनकी वही विशुद्धि अनुभूति अजस्र ध्यानलीन रहे। इसलिए उनकी स्तुति में कहा वाग्धारा में फूट पड़ी। के भरई के पारणंदे' सुख गया है कि वे अनुत्तर ध्यान के प्राराधक थे। और दुःख क्या है ? कुछ भी नहीं केवल भ्रम उनका ध्यान शंख और इन्द की भांति परम शक्ल है, अपनी ही मनोकल्पना है। उनके इसी अनथा । अतः आत्मा के उत्क्रमण में उपवास को चिन्तन ने उन्हें प्राज्ञ बनाया और वही ध्यान अपेक्षा ध्यान की अत्यन्त उपादेयता है। शुक्ल ध्यान में परिणत हुआ। और फिर उन्होंने - भगवान् ने शारीरिक तप वहत तपा। देवता कहा-साधक किसी भी साधना पथ को स्वीकार तियंच और मनुष्यों के द्वारा होने वाले लोमहर्षक करने से पहले अपने बल-स्थान, श्रद्धा और आरोग्य कष्ट सहन किये। लगातार 6 महीनों तक को देखे कहीं ऐसा न हो कि अविचारित प्रयत्न उपोषित रहे, इसके अतिरिक्त बेले, तेले की तपस्या को प्रसफलता से वह अकर्मण्य बन जाये और चलती रही। गर्मी और सर्दी को शान्तभाव से - पुरुषार्थ के प्रति निराशावान भी। झेला । लेकिन फिर भी अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने भगवान महावीर प्रागन्तुक और स्वीकृति में उनका विश्वास नहीं था और न उन्होंने अज्ञान' दोनों प्रकार के कष्टों को साध्य सिद्धि के महान तप को साधना की कोटि में कभी परिगणित सूत्र समता से सहा। भगवान महावीर का प्रादि किया। बाह य और प्रान्तरिक तप का भेद मध्य और अन्त स्थितप्रज्ञता के प्रयास में वीता उन्होंने इस भाषा में समझाया कि सात लव का था। वे प्रतिक्षण जागरूक रहे, विपश्यना की विशिष्ट ध्यान दो दिन के उपवास के तुल्य होता अद्भुत शक्ति से उन्होंने अपने राग और द्वेष रूपी है । उपवास ध्यान की अपेक्षा सरल होते हैं। महान शत्र ओं पर विजय प्राप्त की। वे समता के प्राहार न करने से देह को कष्ट होता है। उस उद्गाता ही नहीं बल्कि उसकी अतल गहराइयों कष्ट को सहने वाले भी मन को स्थिर रखने में में उतरते ही रहे । “दुहनो छेतानियाई" वे दुविधा कठिनाई का अनुभव करते हैं। (राग-द्वेष) को छोड़कर निर्वाण को प्राप्त महावीर की शान वाधना ने साधना पद्धति हुए। को नया जीवन दिया। उन्होंने अपने अनवरत माज हमें शुभ अवसर पर इस ध्यान साधना ध्यान के विविध साधनों में विविध प्रयोगों द्वारा पद्धति को समझना है और उपवासों की दीर्घ यह सिद्ध किया कि साधना पृष्ठभूमि एकमात्र परम्परा के साथ-साथ ध्यान को पुनाः महत्व देना सुदृढ़ मानसिक संरचना है जहाँ प्रतिकूल कष्टों है। जैन साधना का मार्ग समन्वय का मान है, से खिन्न नहीं हुए वहां मनोनुकूल स्थितियां भी सर्व सुलभ मार्ग है। इसे अपनाकार हमको अपने उन्हें किंचित भी विचलित नहीं कर सकीं। प्राप में स्थित होना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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