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________________ 1-14 . भी मानते हैं कि पुरुष मर कर पुरुष होता हैं और को ही जीवन का परम पुरुषार्थ माना। इपीक्यूरस स्त्री मर कर स्त्री होती है। जैसा बीज होता है, के विचार उनसे कुछ भिन्न थे । सुखी बनने के लिए वैसी ही उसकी फल-परिणति होती है । पांचवे उन्होंने प्रात्यन्तिक सुखवाद को प्रश्रय नहीं दिया। गणधर सुर्मा स्वामी महावीर के पास दीक्षित होने अपनी भौतिक सुख-प्रधान दृष्टि के साथ उन्होंने से पूर्व इसी सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। महावीर विवेक और गम्भीर चिन्तन को प्रावश्यक समझा। ने उनका समाधान करते हुए कहा-'स्थूल देह आधुनिक काल के सुखवाद के प्रसारक जेरोहवी बीज नहीं है । आत्मा का शुभ-अशुभ अध्यवसाय बन्थम और जानस्टुअर्टमिल माने जाते हैं । ये दोनों ही बीज है। इसी के अनुरूप उसकी भावीफल- जथे। इनकी भी सखवाट के पोळे वदी पर्व परिणति होती है।' मान्यता थी, जो अरस्टीपस और इपीक्यूरस की अनात्मवादो विचार धारा नई नहीं है। संयम थी। फिर भी इन्होंने स्वार्थ सुखवाद के साथ साथ पौर स्थिति की भिन्नता के साथ उसकी निरुपणा परार्थ सुखवाद पर भी विशेष बल दिया। बैन्थम में भी भिन्नता आई। पश्चिम में नीतिशास्त्र का और मिल ने क्रमशः अपनी 'प्रिसिपल्स आफ स्वतन्त्र विकास हुपा। सुखवाद पाश्चात्य नीति- लेजिस्लेशन' और 'युटिलिटेरियनिज्म' नामक शास्त्र का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इसे अंग्रेजी पस्तकों में अपने विचारों को बडी सक्षमता से प्रतिमें "हिडोनिज्म' के नाम से पुकारा जाता है। इसका पादित किया है। परार्थ सुखवाद के रूप में इनका मूल आधार मनोविज्ञान का वह सिद्धान्त है, जिसके सिद्धान्त उपयोगितावाद के नाम से प्रसिद्ध हुमा । अनुसार मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति का हेतु सुख ही किन्तु अरस्टीपस से लेकर आज तक नैतिक सुखहै। सूख और उसका अंजी पर्यायवाची शब्द वाद का प्राधार मनोवैज्ञानिक सखवाद ही रहा है। 'हैपीनेस' एक ही अर्थ को विभिन्न अपेक्षामों से बन्धम और मिल द्वारा दी गयी यक्तियों में उसी प्रकट करते हैं । किन्तु यहां सुख का अर्थ केवल की प्रधानता है। उन्होंने लिखा है -'प्रत्येक व्यक्ति इन्द्रियो से पैदा और प्राप्त होने वाली अभीष्ट सुख चाहता है। अतः सुख चाहने योग्य वस्तु है । संवेदनाओं से है। सुखवादी नीति-शास्त्रज्ञ नैतिकता अधिक सुख की प्राप्ति ही नैतिक आचरण का का मापदण्ड सुख ही मानते हैं। उनकी दृष्टि में प्रादर्श होना चाहिए।' वही कार्य अधिक नैतिक है जिसमें सूख की संवेदना इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अधिक उत्पन्न होती हैं। सुखवाद का जन्म एक युग-प्रति क्रिया के रूप में , पश्चात्य नीतिशास्त्र में सुखवाद का प्रारम्भ हुमा। किन्तु प्रागे चलकर वह जीवन का शाश्वत यूनान के प्रसिद्ध विचारक अरस्टोपस और इबीक्यू रस सिद्धान्त बन गया। युग के बड़े बड़े विचारकों के द्वारा माना जाता है । वे जड़वादी थे ! संसार में सामने बैन्थम मिल के विचार प्रतिध्व नित होने आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है, शरीर के नष्ट होने लगे । चाहे उसकी मर्यादा व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के पश्चात् कुछ भी नहीं बचा रहता, इसी पूर्व कोई भी बना हो । मान्यता के प्राधार पर उन्होंने सुखवाद का विकास सुखवाद या देहात्मवाद का मनियमित प्रसार किया । यूरोप के पुराने सुखवादी विचारक शेरेनिक व्यक्ति को जीवन के मूलभूत आदर्श से भटकाने माने जाते हैं। वे अरस्टोपस के अनुयायी थे। वाला है। व्यक्ति भौतिक सुख चाहता है किन्तु परस्टीस कट्टर सुखवादी थे। उनके विचार ठीक इससे सुखवाद नैतिक प्रादर्श नहीं बन सकता । वैसे ही थे जैसे कि भारत के प्राचीन साहित्य में वासना आत्मा का विभाव तत्व है, स्वभाव नहीं। चावीक मत के मिलते हैं। परस्टोपस ने सुखवाद यदि वासना की तृप्ति में ही प्रानन्द होता तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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