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________________ 1-12 द्वारा एकापता पुष्ट हो जाए राग-द्वेष का भाव अहंत का ध्यान पुरुषाकार प्रात्मा के रूप में मंद हो जाए तब निरालम्बन ध्यान आत्मा के शुद्ध करना चाहिए। ऐसा करने वाला पूर्वकर्म की स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । सालंबन ध्यान निर्जरा करता है । वर्तमान क्षरण में राग-द्वेष रहित निरालम्बन ध्यान तक पहुंचने के लिए है । यह होने के कारण कर्म का बंध नहीं करता। तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए । दशवकालिक सूत्र में बताया है कि आत्मा से ध्यान सूत्र मात्मा को देखें। ध्यान-काल में चिन्तन और प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है --प्रात्मा-ज्ञान, दर्शन-दोनों हो सकते है किन्तु चिन्तनात्मक ध्यान दर्शन और चारित्र संयुक्त होता है, इसलिए उस ___ की अपेक्षा दर्शनात्मक ध्यान अधिक महत्वपूर्ण है । मात्मा का ध्यान करना चाहिए। प्राचार्य हेमचन्द ने लिखा है कि जब तक ___ इस सूत्र में प्रात्मा के ध्यान की बात कही गई थोड़ा भी प्रयत्न है, संकल्प की कल्पना है, तब तक है । साधना की दृष्टि से प्रात्मा के तीन प्रकार किए लय की प्राप्ति नहीं हो सकती। लय की प्राप्ति जाते हैं--बहिरात्मा, अन्तरात्मा मोर परमात्मा। के लिए सुखासन में बैठे समूचे शरीर को शिथिल इन्द्रिय-समूह बहिरात्मा है । प्रात्मा का अनुभवात्मक करो। चित्त की वृत्ति को रोको मत । कमनीय संकल्प-शरीर और इन्द्रिय से भिन्न है जो ज्ञाता है रूप देखते हुए भी, मधुर शब्दों को सुनते हुए भी, वह "मैं "--इस प्रकार का संवेदनात्मक संकल्प सुगंधित द्रव्यों को सूघते हुए भी सरस रस का अन्तरात्मा है । कम-मुक्त आत्मा परमात्मा है। प्रास्वादन लेते हुए भी, मृदु स्पों का अनुभव करते इन तीनों में परमात्मा ध्येय है। अन्तरआत्मा हुए भी, चित्तवृत्तियों को न रोकते हुए भी राग-द्वेष के द्वारा बहिरात्मा को छोड़ना है । परमात्मा का रहित क्षण का अनुभव करने वाला उन्मनी भाव ध्यान करने से आत्मा स्वयं परमात्मरूप बनता है। को प्राप्त हो जाता है । इसलिए शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिए। ये ध्यानसूत्र आवेश शून्य क्षण का अनुमव शुद्ध चेतना का अनुभव शुद्धता लाता है । और करने के सूत्र हैं । इनके अनुभव द्वारा पूर्वाजित अशुद्ध चेतना का अनुभव अशुद्धता लाता है। कर्म क्षीण होते हैं और गए कर्म का बंध रुकता है जो द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व की दृष्टि से ध्यान द्वारा मानसिक शांति और शारीरिक वेदना प्रहन को जानता है. वह अपनी आत्मा को जानता की उपशांति होती है । ऐहिक और पारलौलिक है। निश्चय नय की दृष्टि से अहंत और अपनी कोई भी ऐसा फल नहीं जो ध्यान द्वारा प्राप्त न प्रात्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। ग्राहत् का हो सके । पर ध्यान का प्रयोग केवल बीतरागता की ध्यान करने से मोह विलीन होता है । सिद्धि के लिए होना चाहिए। 1. तत्त्वार्थ सूत्र 9127. 2. ध्यानशतक, 21. 3. मोक्ष पाहड़ 64. 4. मोक्षपाहुड़, 84 5. समयसार, 86 सुद्ध तु वियाएंतो सुद्ध चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दुः असुद्ध'असुद्ध मेवप्पयं लहइ ।। 6. प्रनचनसार, 80, को जाणदि प्ररहतं, दव्यत्तगुणत पज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। 7. मोक्षपाहुड़, 84, 8. योगशास्त्र 12122-24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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