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________________ जैन परम्परा हम दो सत्ताओं के बीच में अपना जीवन एक साथ नहीं होती। हम चिन्तन करते हैं तब भी चला रहे हैं - एक प्रत्यक्ष सत्ता है और दुसरी शरीर होता है । चिन्तन नही करते हैं तब भी परोक्ष सत्ता । परोक्ष सत्ता प्रात्मा की है और शरीर होता है। शरीर का होना और उसका प्रत्यक्ष सत्ता मन की है। परोक्ष सत्ता तक पहुँचने सचेतन या सक्रिय होना-ये दो बातें हैं । जब में हमें बड़ी कठिनाई है, अनेक बाधाएं हैं और वे चैतन्य या प्राण की धारा शरीर से जुड़ती है तब बाधाएं प्रत्यक्ष सत्ता के द्वारा उपस्थित की जा रही शरीर सक्रिय हो जाता है । वह चैतन्य की धारा हैं। मन का जगत् ऐसा है कि जब हम उसमें उलझ जाते हैं तो परोक्ष सत्ता तक पहुंचने का मार्ग बन्द हो जाता हैं। किन्तु परोक्ष सत्ता बहुत शक्तिशाली है। वह अपने पहंच के मार्ग को सदा के लिए बन्द नहीं होने देती। .. हम आत्मा को नहीं देखते। हमारी इन्द्रियां उस अमूर्त सत्ता को नहीं देख पातीं । वह स्वयं ध्यान वाह्य जगत् में अपने को प्रगट करती हैं । उसके -मुनि श्री नथमल प्रगट होने के चार माध्यम हैं-शरीर, वाणी, श्वास और मन । प्रात्मा की अनुपस्थिति में शरीर स्पंदित नहीं होता और मन गतिशील नहीं बनता जब वाणी के यन्त्र से जुड़ती है तब वास्फूर्त हो ये चारों प्रात्मा से प्राण पाकर ही अपना काम जाती है और वह चैतन्य की धारा जब मन के करते हैं। ये द्वार बनते हैं, खिड़कियां बनते हैं यन्त्र के साथ जुड़ती हैं तब मन गतिशील हो जाता और इनमें से जो झांकता है वह प्रात्मा है। है। तीनों एक साथ सक्रिय नहीं होते। जैसे शरीर एक यन्त्र है, वैसे ही मन भो एक यन्त्र है । जैसे शरीर अचेतन है, वैसे ही मन भी मन कहां है-इस सम्बन्ध में तीन विचारप्रचेतन है । शरीर, वाणी, श्वास और मन ये धाराए हमारे सामने हैंसब अचेतन हैं। प्रात्मा में से एक चैतन्य की धारा 1. कुछ मानते हैं कि मन समूचे शरीर में निकलती हैं, वह परमाणुषों के साथ मिलकर प्राण व्याप्त है । की धारा हो जाती है। वह धारा जिसके साथ मानते हैं कि मन का स्थान हृदय के जुड़ती है । वही सचेतन हो जाता है, सक्रिय हो नीचे है । कुछ लोग मानते हैं कि हृदय-कमल के जाता है । जैन दर्शन का सिद्धांत है कि एक क्षण बीच में मन है । हृदय-कमल की पाठ पंखुडियां में एक ही क्रिया होती है । मन की क्रिया होती है हैं, वहां मन हैं । कुछ योगाचार्यों का मत है कि तब वचन की नहीं होती और जब वचन की होती बाएं फेफड़े में जहां हृदय है, उसके एक इंच नीचे है तब शरीर की नहीं होती। इन तीनों की क्रिया मन का स्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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