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________________ -2-104 अपने इस महाकाव्य के माध्यम से भगवान महावीर स्वामी की काव्यमय मूर्ति की रचना की है जो कि युग-युगान्तर तक वन्दनीय बनी रहेगी ललाट पे एक अनूप ज्योति है, प्रसन्नता श्रानन में विराजती । मनोज्ञता शोभित अंग-अंग में, पवित्रता है पद-पदुम चूमती । कवि ने इन शब्दों में वीर-वन्दना की है : प्ररणाम श्री सागर ज्ञान-सिन्धु को प्रणाम भू-भूप विश्व-बन्धु को नमामि सत्यार्थ प्रकाश भानु को, नमामि तत्वार्थ विकास सानु का महावीर की मौलिक देन इन शब्दों में आबद्ध हो गयी है : है : मनुष्य अस्तेय- विचार-युक्त जो वही व्रती मादरणीय है सदा । न पालता जो जन ब्रह्मचर्य है, उसे नहीं प्रास्पद मोक्ष का मिला ॥ दूसरा मुख्य सिद्धान्त इन पंक्तियों में मा पाया सदा हसा रखना स्व-धर्म है, प्रदत्त लेना अपना न कर्म है । मनुष्य जो उत्तम प्रात्म-निग्रही, उन्हें अविश्वास सदा प्र-धर्म है । कवि प्रपने महाकाव्य की परिसमाप्ति इस अवतरण से करता है : भयो, है यह मेदिनी शिविर-सी जाना पड़ेगा कभी, भागे का पथ ज्ञात है न, इससे सद्बुद्धि प्राये न क्यों ? ले लो साधन धर्म के, न तुमको व्यापे व्यथा अन्यथा, है जैनेन्द्र- पदारविन्द - तरणी संसार-पयोधि की ॥ पच्चीस सौ वें महावीर - निर्वाणेत्सवो की एक अपूर्व स्मृति के रू+ में रघुवीरशरण 'मित्र' का 'वीरायण' नामक महाकाव्य हाल ही में प्रकाशित हुधा है । महाकाव्य के पश्चात् स्वाभाविक रूप में खण्ड काव्य की स्थिति भाती है । Jain Education International उपरिचित कवि नवलशाह के 'वर्द्ध मान चरित' नामक काव्य को चरित काव्य कहा जा सकता है। इसमें वर्द्धमान स्वामी के पूर्वभवों का भी चित्ररण है । ऋषभ भगवान के मोक्ष तक की गाथा दी गयी है । इस चरित-काव्य के सोलह afari में प्रख्यात छन्दों का उपयोग मिलता है । - तात्विक विवेचन अधिक विस्तृत है। इस कृति को . भाषा में ब्रज, बुन्देली तथा खड़ी बोली का समुचित मिश्रण है । उदाहरण के रूप में महारानी प्रियकारिणी के रूप सौन्दर्य का एक चित्र सर्वथा हृष्टव्य है : अम्बुजसो जुग पाय बने, नख देख नखत भयो भय भारी । नूपुर की झनकार सुनें, हग शोर भयों दशहू दिश भारी || कन्दल थम बने जुट जंध, सुचाल चले गज की पिय प्यारी ॥ कीन बनो कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज सारी ॥ नाभि निवोरियसी निकसी, पढ हावत पेट संकुचन धारी । काम कपिच्छ कियो पट भन्तर, शील सुधीर घरं श्रविकारी ॥ भूषन बारह भांतिन के प्रन्त कण्ठ में ज्याके ज्योति लसे अधिकारी । देखत सूरज चन्द्र छिपे, मुख दाड़िम दन्त महाछविकारी ॥ धन्यकुमार जैन 'सुधेश' ने 'विराग' नामक भावात्मक खण्डकाव्य में सत्पथ को प्रशस्त किया है । इसे भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा ने प्रकाशित किया है । इसके पांच सर्गों के कथानक में महाबीर के प्रन्तर्द्वन्द्व का अच्छा चित्ररण हुआ है । मातृ हृदय के कोमल पक्षों को भी सफलतापूर्वक उद्घाटित किया गया है। विश्व की कला ने उन्हें राजप्रासाद से धरती पर लाकर जन-मन का भगवान बना लिया । इसमें जननायक महावीर के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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