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________________ हिन्दी साहित्य गवान महावीर स्वामी भगवान् वर्द्धमान और जैनधर्म : भगवान् महावीर स्वामी जैनधर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थ कर थे। जैनधर्म जीवन-धर्म, मानब-धर्म और सहज-धर्म है। जो उसे अपने जीवन में सिद्ध और प्रकट करते हैं, वे तीर्थ कर के नाम से सम्बोधित किए जाते हैं। श्रमण-संस्कृति मानव-संस्कृति है। उसने हमारे साहित्य को प्रभावित किया है। उसमें गनुष्यता का उज्ज्वल रूप निहित है और साहित्य वास्तव में मानव और मानवता की रसपूर्ण-मार्मिक गाथा तथा चमत्कारित अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से जैन-धर्म साहित्य की मात्मा के अधिक निकट आता दिखाई देता है। भगवान महावीर स्वामी (540 ईस्वी पूर्व468 ईस्वी पूर्व) के जीवन-चरित्र, व्यक्तित्व और जीवन दर्शन ने समूचे भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने राज-वैभवादि त्याग दिया था। उन्होंने बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की थी। वे मनुष्य मात्र को दुःख से मुक्त कराने के लिए तपस्या कर रहे थे और कष्ट सहन कर रहे थे परन्तु विडम्बना यह थी कि मनुष्य उनको दुःख पहुंचा रहे थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में कह सकते हैं: जितने कष्ट-कण्टकों में है जिनका जीवन-सुमन खिला, गौरव-गन्ध उत्तम उन्हें उतना ही अत्र-तत्र-सर्वत्र मिला। 'निराला' भी कहते हैं : मरण को जिसने वरा है, उसी ने जीवन भरा है पौर सूखी री यह डाल, बसतं बासन्ती लेगी। डा. बमीनारायण दुबे - सागर वि. वि., सागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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