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________________ 2-74 जैन शास्त्रों के अनुसार रंगों और मूल सूत्तों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है प्राय रंग । प्राचीनतम जैन सूत्र भी यही है । इस सूत्र की महिमा सम्पूर्ण जैन साहित्य में एक स्वर में गायी गई है । भाव निदर्शन के लिए एक उद्धरण प्रस्तुत है -- 'नत्थि कालस्स गागमो | सव्वे पारण। पियाउया, सुहसाया, दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविरणो जीविउकामा । सव्वेसि जीवियं प्रियं ।। सब अर्थात् - 'मृत्यु का आना निश्चित है । प्राणियों को अपना जीवन-प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दुख कोई नहीं चाहता, मरण सभी को अप्रिय है । सभी जीना चाहते हैं । प्रत्येक प्राणी जीवन की इच्छा रखता है, सब को जीवित रहना अच्छा लगता है ।' यह एक शाश्वत तथ्य है । इस प्रकार के शाश्वत, सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक तथ्यों की दृष्टि से जैन साहित्य में मूल सूत्रों की वही महात्म्य है जो बौद्ध साहित्य में धम्मपद का । इसके उत्तरज्भयरण ( उत्तराध्ययन) के प्रथम अध्याय में 'विनय' का वर्णन इस प्रकार है मा गलियस्सेव कसं वयमिच्छे पुणो पुरणो । कसं व दट्टुमा इन्ने, पावगं परिवज्जए || अर्थात् मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-बार गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करनी चाहिए । जैसे श्रच्छी नस्ल का घोड़ा चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी प्रकार गुरु के प्राशय को समझ कर मुमुक्षु को पाप कर्म त्याग देना चाहिए। यह कथन मुमुक्षु के लिए होते हुए भी सर्वजनोपयोगी है । यहीं पर तीसरे अध्ययन में प्रप्रमाद की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि टूटा हुआ जीवन-तन्तु फिर से नहीं जुड़ सकता, इसलिए हे गौतम । तू क्षण भर भी प्रमोद न कर । जरा से ग्रस्त पुरुष को कोई शरण नहीं है, फिर प्रमादीहिंसक और प्रयत्नशील जीव किस की शरण जायेगे । Jain Education International बाईसवें अध्ययन में सती का अपने ऊपर श्रासक्त श्रमरण रथनेमि को फटकारना कितना कल्याणकारी तथा प्रभावोत्पादक है - 'हे रथनेमि यदि तू रूप से वैश्रमण, चेष्टा से नलकूबर अथवा साबात इन्द्र ही क्यों न बन जाय, तो भी मैं तुझे t चाहूंगी। हे यश के अभिलाषी ! तू जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः सेवन करना चाहता है । इससे तो मर जाना श्रेयस्कर है । जिस किसी भी नारी को देखकर यदि तू उस के प्रति प्रासक्ति भाव प्रदर्शित करेगा तो वायु के झोंके से इधर-उधर डोलने वाले तृरण की भाँति तेरा चित कहीं भी स्थिर न रहेगा ।" इसी प्रकार पच्चीसवें अध्ययन में ब्राह्मण तपस्वी प्रादि के लक्षण तथा कर्म महिमा इस प्रकार गायी गयी है— इस लोक में जो श्रग्नि की तरह पूज्य है, उसे कुशल पुरुष ब्राह्मण कहते हैं। सिर मुंडा लेने से श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण नहीं होता । जंगल में रहने से मुनि नहीं होता मौर कुश चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहा जाता । समता से श्रमरण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है । कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, धर्म से वैश्य भोर कर्म से ही मनुष्य शूद्र कहा जाता है।" स्पष्ट है कि भागम साहित्य नैतिक कथनों का प्रपूर्व भंडार है । ये कथन दिक्कालातीत, सार्वदेशिक एवं सार्वभौमिक सत्य है । जैन धर्म की प्रक्षय निवि होते हुए भी ये मानव मात्र की निषि हैं । इन की महिमा का अधिक माख्यान न करते हुए कुछ बहुमूल्य कथन उद्धृत करना अधिक उपयोगी होगा - 1. " ( महापुरुष वह है) जो लाभालाभ में सुखदुख में, जीवन-मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान-अपमान में समभावी हो ।" 2. "स्वार्थं रहित देने वाला दुर्लभ है, स्वार्थ रहित जीवन निर्वाह करने वाला भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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