SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2-32 अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में उसने पुन: उत्तरापथ के राजानों के विरुद्ध सैनिक अभियान किया जिससे मगधवासियों के हृदय में भय भर गया। अपने हाथियों और घोड़ों को उसने पुनः इस वर्ष गंगा नदी का पानी पिलाया। इस घटना का ज्ञान कराने वाले शब्दों पर डा० जायसवाल ने दूसरे ढंग से विचार किया है। उनकी मान्यता के अनुसार यहाँ मुद्राराक्षस में वर्णित, गंगा तट पर स्थित मोर्यो के सुगांग नामक राजमहल पर खारवेल द्वारा अधिकार किये जाने का घरन है । अभिलेख के इस पद को डा० जायसवाल 28 ने 'हथी सुगंगीय' पाठ माना है । खारवेल के इस अभियान में मगधनरेश वृहस्पतिमित्र ने उसकी प्राधीनता स्वीकार करते हुए विजेता सम्राट की चरण वन्दना की। परन्तु मात्र शासक पर विजय प्राप्त कर लेना खारवेल के इस अभियान का अभीष्ट नहीं था । इस बार एक विशेष अभिप्राय को लेकर उसने अपनी सेना मगध की दिशा में बढाई थी । वह अभिप्राय था तीर्थंकर भगवान् महावीर की उस प्रतिमा को पुनः प्राप्त - करना जिसे लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व राजा नन्द द्वारा कलिंग से मगध ले श्राया था । प्रभिलेख की इस पक्ति में बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया गया है कि खारवेल का यह अभियान सफल हुआ और कलिंगजिन की प्रतिमा के साथ अंग और मगध की विपुल सम्पत्ति लूटकर ही वह स्वदेश वास हुआ । डा० जायसवाल 29 का मत है कि उदयगिरि-खण्ड गिरि स्थित अनन्तगुहा में पार्श्वनाथ और महावीर के लाञ्छन पाये जाते हैं । किन्तु महावीर का लाञ्छन सिंह जय-विजय और अनन्त दोनों गुफाधों में अधिकता से पाया जाता है । अतः कलिंग जिन के रूप में उनकी ही चर्चा प्रस्तुत अभिलेख में की गयी है । इसी वर्ष खारवेल ने संभवत: पाण्डय देश राजा को भी पराजित किया। इस राजा ने उ बहुमूल्य मुक्ता- मणियों और रत्नों के उपहार किये । Jain Education International तेरहवें श्रीर शिलालेख में उल्लिखित अन्तिम शासन वर्ष में अपनी विजयों से सन्तुष्ट खारवेल राज्य के सारे साधन धार्मिक कृत्यों में लगा दिये उसने कुमारी पर्वत पर निषिद्धा में रहने वाले या भिक्षुओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया और सिंहस्थ रानी सिन्धुला के लिये 75 लाख मुद्रायें खर्च कर विश्रामावासों का निर्माण करण्या | तेरहवां शासन वर्ष समाप्त होने के पूर्व खारखेल द्वारा एक जैन साधु परिषद का प्रायोजन किया गया जिसमें भाग लेने के लिये दूर-दूर से मुनि एवं प्राचार्य उदयगिरि खण्डगिरि पर उपस्थित हुए । इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि उत्तर भारत में मौर्यकाल में बारह वर्षों के दुर्भिक्ष की समाप्ति पर एक जैन सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में किया गया । जैन वाङ्कमय के बिखरे और विलुप्तप्राय सूत्रों को संकलित और लिपिबद्ध करना इस परिषद् का उद्द ेश्य था परन्तु श्रुत परम्परा से जैन सूत्र जिनकी स्मृति में सुरक्षित थे ऐसे अधिकारी आचार्यों में परस्पर मतभेद होने के कारण यह सभा बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो गयी थी । सम्राट खारवेल ने जब इस प्रकार की सम्र का प्रायोजन कुमारी पर्वत की पवित्र भूमि पर किया तब परिस्थितियां बहुत बदली हुई थी। अपनी चतुर्दिक विजयों के कारण खारवेल एक शक्तिशाली सम्राट या चक्रवर्ती के रूप में विख्यात हो गया था। तीन सौ वर्ष पूर्वकलिंग से अपहरित कलिंग जिन नामक तीर्थंकर प्रतिमा को युद्ध में 28. ज. बि. उ. रि. सोः, खण्ड 4, पृ. 384 29. वही डा० बनर्जी के अनुसार कलिंग जिन दसवें तीर्थकर शीतलनाथ थे । देखिये एपि. ईण्डि., खण्ड 20, पृ. 85 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy