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________________ खींवसर ग्राम से प्राप्त एवं जोधपुर संग्रहालय में निधि है । एकलिंगजी (मेवाड़) के निकट नागदा प्रदर्शित जीवन्त स्वामी की विशालकाय मूर्ति 11वीं में महाराणा कुम्भा के राजत्व में शांतिनाथ जी शताब्दी की जैन मूर्तियों में अपना विशिष्ट स्थान का मन्दिर बना जिसमें मूलनायक की प्रतिमा रखती है। उस पर लघु लेख भी उत्कीर्ण है --- 9 फीट ऊंची है और 'भदुबुद' (अद्भुतजी) नाम 'वीरणा चालुक्यस्यां कारितं ।' इस प्रतिमा से से विख्यात है। इस प्रतिमा की चरण चौकी पर भगवान महावीर को पूरे राजसी वैभव के साथ माघ सुदि 11 गुरुवार वि. स. 1494 का लेख राजकुमार के रूप में कलाकार ने मंकित किया है, उत्कीर्ण है जिससे स्पष्ट है कि इसका निर्माण राजस्थान के अनेक प्राचीन महावीर मन्दिरों के मदनपुत्र धरणा या धरणाक द्वारा कराया गया। विभिन्न भागों पर जीवन्तस्वामी का अकन प्राप्त विशाल धातु प्रतिमानों के निर्माण में भी जैन धर्म है। इस दृष्टि से पाहाड़ (उदयपुर), प्रोसियां का महत्वपूर्ण योगदान रहा । पाहाड़ से प्राप्त एवं (जोधपुर) एवं सेवाड़ी (पाली) के महावीर मन्दिर उदयपुर संग्रहालय में प्रदर्शित पुरुषाकार आसनस्थ उल्लेखनीय है जो 10-11 वीं शताब्दी में जिन प्रतिमा 8वीं-9वीं शताब्दी की विशिष्ट निर्मित हुए। कलाकृति है। डूगरपुर के सूत्रधारों द्वारा विनिर्मित अनेक पातु प्रतिमाए महाराणा कुम्भा के समय में अन्य तीर्थकरों की भी अनेक प्रतिमाएं राजस्थान के विभिन्न परिसरों में निर्मित हुई। मचलगढ़ (प्राबू) के जिनालयों में प्रतिष्ठित हुई। पिलानी के निकट नरहड़ से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा इस प्रकार की एक सुविशाल आदिनाथ भगवान की धातु प्रतिमा, जिसकी चौकी पर कुम्भा के में सुमतिनाथ (वें तीर्थकर) तथा नेमिनाथ समय की वि. सं. 1518 का लेख है, तपागच्छ के (22वें तीर्थकर) की भव्य प्रतिमाएं ज्ञात हैं जिनकी लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा अचलगढ़ के जैन मन्दिर में चरण चौकी पर उनके लाञ्छन क्रमश: 'चक्र' व प्रतिष्ठा की गयी। 'शंख' उत्कीर्ण हैं । ये गुप्तोत्तरयुगीन कलाकृतियां हैं । जैन प्रतिमाएं अपनी विशालता के लिए भी तीर्थकरों के अतिरिक्त, जैन 'पंच परमेष्टिनों' प्रसिद्ध हैं। अलवर क्षेत्र में पारानगर के निकट, की प्रतिमाओं के निर्माण की गौरवपूर्ण परम्परा जैन मन्दिर के भग्नावशेष बिखरें हैं जहां तेइसवें राजस्थान में विद्यमान हैं। अहंत (तीर्थ कर) के तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ को 16 फोट ऊंची समान सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय व साधु भी भक्तों विशाल प्रतिमा विद्यमान है जो 'नौगजा' नाम से के पूज्य हैं अतः उनकी प्रतिमानों का निर्माण भी प्रसिद्ध है और 9वीं शताब्दी की कला की अनुपम राजस्थान में लोकप्रिय रहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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