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________________ 2-4 प्रस्तरों पर उपलब्ध है। ये दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन प्रतिमानों में सर्वोत्तम कलाकृति गुप्तदोनों ही वर्गों की हैं। कुषाणकालीन प्रतिमाओं कालीन चित्र-3 है । इसे मथुरा से पाया गया में तीर्थङ्कर के साथ सादा प्रभामण्डल, चंवरधारी है। इसमें चक्र है जो कि सामान्य है। किन्तु नीचे चक्र, अर्द्ध फालक, उपासक उपासिका या इसमें बैल, बाल नहीं, शंख बलराम कृष्ण सर्पफण गृहस्थोत्तम को बनाया जाता था । मूल नायक को नहीं हैं । लेख भी नहीं है । चूकि मथुरा के श्रीवत्सयुत शारीरिक सौन्दर्य एवं मुख को तेजस्विता प्रायाग पट्ट पर चक्र के साथ तथा प्रायवितीचर से बनाया जाता था । प्रभामण्डल को कमल, महावीर, वर्तमान लिखा पाते हैं। जैन साहित्य में हस्तिनख फूलों से सजाया जाता था। यह गुप्तकाल उल्लेख पाते हैं कि भग. महावीर मथुरा अपने में विशेषता रही कि नासाग्र दृष्टि रखी जाती थी। जीवनकाल में पधारे । इस प्रतिमा को देखने से यह मध्य युग से ही यक्ष, पक्षी, गणधर, विद्याधर. सहजही में लगता है कि भग. महावीर की प्रतिमा कैवल्य वृक्ष, गन्धर्व, त्रिछत्र, देवदुंदुभी आदि का है जो “सत्वेषुमैत्री" की याद दिलाती है मानों विकास हुआ है। यह प्रतिमा कहती है :--- "जग पर न्योछावर हो जाना स्वर्ग यही, कल्पवृक्ष के नीचे युगलिया तथा ऊपर अर्हन निर्वाण यही। प्रतिमा, पंचतीर्थी, त्रितीर्थी, चौबीस तीर्थङ्करों का सबको अपना बन्धु समझना, सबसे ऊचा अङ्कन पट्ट-चौबीसी. मानस्तम्भ, सर्वतोभद्रिका धर्म यही ॥ चौमुखी आदि उल्लेखनीय जैनकलाकृतियाँ हैं। ये -स्व० पुष्पेन्दु लेख युत या लेख रहित है। इनमें कहीं-कहीं पर अष्ट या नव ग्रहों का सी अङ्कन है। अन्तिम को मनोज्ञता के कारण ही इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति छोड़कर शेष गुप्त या गुप्तोत्तर काल की है। प्राप्त है, जाप न, ब्रिटेन, अमेरिका की प्रदर्शनी में इसने भारतीय कला को मुखरकर जैन संस्कृति को प्रतिष्ठापित किया है। इस प्रकार जैन कला पर विहंगम दृष्टिपात करने पर क्या यह विदित नहीं होता कि तीर्थकर प्रतिमाए' ध्यानमग्न या परमनिर्विकार ध्यान में लीन हैं ? ये प्राध्यात्मिकता के ऊंचे स्तर पर हैं। जो दर्शक को सत्यं शिवं सुन्दरं का बोध कराती संक्षेप में प्रस्तर, मिट्टी, धातु (सोना, पीतल) एवं कागज के माध्यम से विनिर्मित ये जन-कला कृतियां राज्य संग्रहालय लखनऊ के संग्रह की अमूल्य निधि हैं । ये कृतियां कला जगत की अक्षयपूर्णिमा हैं। 3. मथुरा स्थित भाण्डीर उद्यान में ठहरे थे—विवग्सूय, जैन पार्ट एण्ड माचीटेक्चर ब्लूम-1 । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary Jain Education International
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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