SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कला वैभव (राज्य संग्रहालय, लखनऊ के परिप्रेक्ष्य में) -श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी, IFE भारत में उत्तर प्रदेश का अपना ही महत्व है। इस प्रदेश में संस्कृति, दर्शन, कला एवं धर्म प्राचीन काल में इस प्रदेश की संज्ञाए "मध्यदेश" ___का सर्वत्र प्रसार है । यथा मथुरा, अयोध्या, तथा "आर्यावर्त" थी। यहां पर इतिहास, पुरातत्व वाराणसी, श्रावस्ती, अहिछत्रा, हस्तिनापुर, कन्नौज, एवं सस्कृति का संगम अविस्मरणीय है। यहां आदि नगरों का अपना महत्व है । सदैव महापुरुषों 1 Bोकाय के इस प्रदेश में जन्म, जीवन-क्रीड़ाओं तप-दीक्षा उपदेश एवं निर्वाण प्रभूति घटनामों के होने से, इसे गौरव प्राप्त हुआ है। इस गौरवमय प्रदेश में सर्वप्राचीन एव संग्रह में अद्वितीय है-राज्य संग्रहालय लखनऊ। इस संग्रहालय में जैन धर्म से सम्बद्ध कलाकृतियों का वृहत्संग्रह है। यह संग्रह मथुरा, अयोध्या, काशी, महोबा, उन्नाव, आगरा, जालौन, एटा, आदि, उ.प्र. के अतिरिक्त ग्वालियर, मुइहर छतरपुर, म.प्र. आदि स्थानों से भी है । ये कलाकृतियां मूलरूप से तो खुदाइयों से प्राप्त हुई । कितनी ही क्रय की हुई है। कुछ उपहार रूप में प्राप्त हुई हैं जिनमें सन् 1972 में चौक, लखनऊ 'में स्थित भगवान नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर से प्राप्त जैन-मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ग संग्रह में हस्तलिखित पुस्तकें जिनमें उल्लेखनीय हैं। उत्तराध्ययनसूत्र, महावीर चरित, सुरसुन्दरी कथा आदि । ये सभी मध्यकालीन हैं। चित्रकला में नेमिनाथ चरित, मेवाड़ शैली के चित्रों का संग्रह जिनमें नायक की होली खेलते, झूला झूलते अंकित किया गया है। इसके बाहाण, जैन एवं बौद्ध-इन तीनों धार्मिक धाराओं अतिरिक्त पद्मावती का रेखाचित्र, ऋषभदेव का की अजस्र मंदाकिनी बही है, जिसमें प्राणिमात्र अंकन जिसमें श्वेताम्बर मुनि हैं तथा राजा को उपको पावन करने की पूर्णशक्ति है । आज भी वैभव.. देश देते हए मनि दर्शित हैं । इसका वर्णन श्रीमद् एवं सभ्यता से बेसुध किन्तु चित्त से पूर्णरूपेण भागवत में भी पाते हैं। प्रशान्त मानव को शीतलता, इस भारतीय संस्कृति की मंदाकिनी में अवगाहन करने से ही प्राप्त हो धातु पर भी जैन कला को पाते हैं। सोने का सकेगी-ऐसा दृढ़ विश्वास है। माधे इच का पत्र-पतर जिस पर अम्बिका का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrabargs
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy