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________________ सर्वोदय नधर्म तीर्थ नाम घाट का है जिससे विश्व के सभी प्राणी अपने लक्ष्य परमशान्ति सुख को प्राप्त कर सकें। "जो त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहें दुखते भयवन्त" यानी जितने भी जीवधारी हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दुख से डरते है । इस लिये ऐसे घाट (तीर्थ) की जरूरत थी जहां से सवार होकर प्रत्येक प्राणी अपना अभ्युदय कर सके, अपना विकास कर सके, और अपना कल्याण कर सके। जिसमें वर्ग भेद न हो, जाति भेद न हो, कुल और वैभव की भी महत्ता न हो। किन्तु गुणों का समादर हो । जिसमें क्रमशः विकास व उत्थान करने का समाधान हो। ये सब बातें जैनधर्म में समाविष्ट हैं, संग्रहीत है। इसलिये जैनधर्म ही वस्तुतः सर्वोदय तीर्थ है । इसी के सहारे तुच्छ से तुच्छ प्राणी अपने कार्यक्रम से अपना उत्तरोत्तर विकास करता हग्रा प्रात्मा से परमात्मा बन सका है। अनेक पशु-पक्षियों तक.ने मात्म तत्व को प्राप्त कर अपना उत्थान किया है। शास्त्रों में इसके अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं । जैनधर्म के वर्तमान चौवीसी तीर्थकर परंपरा में 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ही इसके जीते जागते सुबूत है। जिनका उत्थान सिंह (शेर) की पर्याय से हुवा था। जिनेन्द्र देव की, ऋषि मुनियों की जैनधर्म अनुप्राणित धर्म देशना द्वारा जिन्हें प्रात्म बोध हवा. और जिससे उन्होंने अपने गलत रवैया को त्याग कर संयम रूप जीवन बनाया । अपना पूर्ण विकास कर सिद्धालय (मोक्ष) को प्राप्त किया है। स्वर्गादिक प्राप्त किये हैं। ऐसे अनंत उदाहरण शास्त्रों में परिणत है। मेंढ़क तोता-नकुल शृगाल, बन्दर, घोड़ा, आदि अनेक बोधहीन पशु-पक्षियों ने बोध प्राप्त कर उसे अपने जीवन में उतार कर श्री राजकुमार शास्त्री, निवाई, संचालक अखिल विश्व जैन मिशन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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