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________________ धनुमान श्रौर उसके प्रकार साध्वी श्री कनकप्रभाजी Jain Education International प्रत्येक दर्शन परम्परा काल और नई स्थापना इन दो दृष्टियों से अपना महत्व अभिव्यंजित करती है ! काल की प्राचीनता का जितना महत्व है उससे भी अधिक महत्व है नई स्थापनाओं का । कालक्रम की दृष्टि से जैन न्याय को अर्वाचीन माना जाता है, इसी लिए जैन न्याय प्रणेताओं के सामने यह समस्या आई कि वे नौ या सात सौ वर्षों बाद जिस न्याय के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, वहां नई देन दें या पूर्व दार्शनिकों का अनुकरण करें अन्यथा उनके विचारों को प्रादर मिलना मुश्किल है । दार्शनिक क्षेत्र में जैन, बौद्ध भोर वैदिक तीनों ने अपनी स्वतंत्र रचनाएं प्रस्तुत की हैं। उन रचनाओं में किसने किसका अनुकरण किया, यह तथ्य आज भी विवादास्पद है । जैन दर्शन का मूल स्रोत भगवान ऋषभ हैं, जो इतिहास की प्रांखों से श्रोभल । वर्तमान में उपलब्ध सामग्री पर भगवान् महावीर का प्रभाव है । भगवती, स्थानांग और अनुयोगद्वार में न्याय विषयक विकीर्णं तथ्य पाए जाते हैं । स्वतंत्र ग्रन्थना की दृष्टि से वैदिक साहित्य का काल लम्बा है । ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में 'गौतम' 'करणाद' श्रादि ने न्याय सूत्र, वैशेषिक सूत्र, वेदान्त सूत्र और ब्रह्मसूत्र का प्रणयन किया । ई० पू० चौथी शताब्दी में बौद्ध परम्परा के प्राचार्य दिग्नाथ ने 'प्रमाण समुच्चय' की रचना की प्रौर जैन परम्परा में ईसा की तीसरी शताब्दी में उमास्वाति ने 'तत्वार्थ सूत्र' को अभिव्यक्ति दी । गोतम उमास्वाति के बीच में नौ सौ वर्षों का अन्तर पड़ जाता है । इस दृष्टि से जैन न्याय का उद्भव भले ही बाद में माना जाए लेकिन मूल तत्व जैन दर्शन की श्रादि से ही जुड़े हुए हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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