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________________ 1-137 (4) चतुर्थ 'सुख' 'मोक्षरूपी सुख' है, जो कर्म इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार मुक्तात्मा पौर क्लेशों के छूट जाने से होता है। वह अनुपम 'अनन्तचतुष्टय' को प्राप्त कर लेता है। वह सुख है ।37 समस्त संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है 'अनन्तज्ञान', 'अनन्तदर्शन', 'अनन्तवीर्य' तथा जिससे उस सुख की उपमा दी जाये ।39 उसे अनु- 'अनन्तसुख' से युक्त होता है। सर्वदर्शनसंग्रह में मान पोर उपमान प्रमाणों से नहीं जाना जा सकता प्राचार्य पद्मनन्दी का उद्धरण देते हुए यह भी कहा है। भगवान् अर्हतों के द्वारा उस सुख का प्रत्यक्ष गया है, "चन्द्र, सूर्य प्रादि ग्रह तो जा-जाकर लौट किया जाता है और उनके उपदेश द्वारा ही उस पाते हैं, किन्तु लोक से परे जो आकाश है उसमें सुख को समझा जा सकता है 40 गये हुए मुक्तात्मा आज तक नहीं लौटे।"41 28. . 1. चेतनालक्षणो जोवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 177 2. उपयोगो लक्षणम् । तत्वा. सू. 2/8 3. स उपयोगो द्विविधः स कारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः । तत्वा. भा. 213 *4. ज्ञाना भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्न कथंचन । सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० 148 . प्रदेशसंहारविसभ्यिां प्रदीपवत् । तत्वा. स. 5116 6. तत्र जीवा द्विविधाः, संसारिणो मुक्ताश्च । भवाद्भवान्तरप्राप्तिमन्तः संसारिणः । ते च द्विविधाः-समनस्का, अमनस्काश्च । तत्र संज्ञिनः समनस्काः । शिक्षाक्रियालापग्रहणरूपा संज्ञा । तद्विधुरास्त्वमनस्काः । ते चामनस्का द्विविधाः, बसस्थावरभेदात् । तत्र द्वीन्द्रियादयः शंखगण्डोलकप्रभृतयः चतुर्विधास्त्रसाः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः सर्व । दर्शन संग्रह, पृष्ठ 150 67. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः । तत्वा. सु. 8/2 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोग वन्धहेतवा । तत्वा. स. 8/1 श्री न्यायविजयः जैन दर्शन, पृ० 39 10. श्री न्यायविजय : जैनदर्शन, पृ० 38 11. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्वा. सू. 1/1 तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वही, 1/2 तन्निसर्गादधिगमाद्वा । वही, 1/3 जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् । वही, 1/4 सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० 136-140 46. एतानि सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मिलितानि मोक्षकारणं न प्रत्येकम् । वही, पृ० 142 17. मास्रवनिरोधः संवरः । तत्वा. सू. 9/1 118. तत्वा. स. 9/4 तथा प्रागे 19. दग्धे बीजे यथात्यंतं प्रादुर्भवति नोकुर।। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥ तत्वा. वा. 10/2/3 तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । तत्वा, सू. 10/5 पूर्व प्रमोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च गद्गति । वही, 10/6 12. पूर्वप्रयोगात् । यथा हस्तदण्डचक्रसंयुक्तमयोगात्पुरुषप्रयत्नतश्चाविद्ध कुलालचक्रमुपरतेष्वपि पुरुषप्रयत्नहस्तदण्डचक्रसंयोगेषु पूर्वप्रयोगादभ्रमत्येवासंस्कारपरिक्षयात एवं यःपूर्वकस्य कर्मणा प्रयोगो जनितः स क्षीऽपि कर्मारिण-गतिहेतुर्भवति । तत्कृता गतिः तत्वा० भा० 10/6 20. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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