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________________ 1-122 लिकता तो भान्तरिक होती है। हिंसा नहीं करना इन प्रारए शक्तियों का वियोजीकरश कोही यह महिमा का शरीर हो सकता है अहिंसा की द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है। यह हिसा प्रारमा नहीं। किसी को नहीं मारना यह अहिंसा की द्रव्य दृष्टि से की गई परिभाषा है। जोकि के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है । लेकिन यह हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है। मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा भाव हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित हिंसा हिंसक कर्म है। भाव हिंसा मानसिक अवस्था रही। जैन प्राचार दर्शन का केन्द्रीय तत्व अहिंसा है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने भावानात्मक पक्ष पर शाब्दिक रूप में यद्यपि नकरात्मक है, लेकिन उसको बल देते हुए हिंसा महिसा की परिभाषा की। अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति उनका कथन है कि रामदि कषायों का प्रभाव सदैव ही विधायक रही है। सर्व के प्रति प्रात्मभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है।' करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से ही हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्वार्थ सूत्र में महिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा नहीं मिलती है। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, करना यही मात्र अहिंसा नहीं है । अहिंसा क्रिया अविवेक भावि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने नहीं सत्ता है, वह हमारी प्रास्मा की एक अवस्था वाला प्राण वध हिंसा। है। भास्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और हिंसा के प्रकार-जैन विचारकों ने व्रव्य प्रश्मत्त अवस्था ही अहिंसा है। प्राचार्य भद्रबाहु और भाव इन दो प्राधारों पर हिंसा के चार मोपनियुक्ति में लिखते हैं—पारमार्थिक दृष्टिकोण विभाग किये है-1. मात्र शारीरिक हिंसा से मारमा ही हिंसा है और प्रात्मा ही अहिंसा है; 2. मात्र वैचारिक हिंसा 3. शारीरिक एवं प्रमत्त मात्मा हिंसक है और अभ्रमत्त मात्मा ही नैचारिक हिंसा और 4. शाब्दिक हिना। मात्र प्रहिसक है291 शारीरिक हिंसा-यह ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें द्रव्य एवं नाव हिंसा-अहिंसा को सम्यक हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो लेकिन हिंसा के रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना विचार का प्रभाव हो। उदाहरणाथ सावधानो मावश्यक है कि जैन विचारणा के अनुसार हिंसा पूर्णक चलते हुए भी दृष्टि दोष या सूक्ष्म जन्तु क्या है ? जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर के नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र विचार करती है, एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे वैचारिक हिंसा-यह भाव हिंसा है इसमें हिंसा जैन परिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया की क्रिया तो अनुपस्थित होती है लेकिन हिंसा है । द्रव्य हिंसा के सम्बन्ध में एक स्थूल एवं बाह्य का संकल्प उपस्थित होता है। अर्थात् कर्ता हिता दृष्टिकोण है । यह एक क्रिया है जिसे प्राणाति- के संकल्प से युक्त होता है लेकिन बाह्य परिस्थिति पात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना वश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता जाता है। जैन विचारणा प्रात्मा को अपेक्षाकृत है। जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का रूप से नित्य मानती है अतः हिंसा के द्वारा जिसका विचार (परम्परागत दृष्टि के अनुसार तंदुलमन्छ हनन होता है वह आत्मा नहीं वरन् 'प्राण' है-. एवं कालकोसरिक कसाई के उदाहरण इसके लिए। प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दिये जाते है)। वैचारिक एवं शारीरिक हिसादस माने गये हैं। पांच इन्द्रियों की पांच शक्तियां, जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया. मन, वाणी और शरीर इन का विविध बल तथा दोनों ही उपस्थित हो जैसे सकर पूर्णक की नई श्वसन क्रिया एवं प्रायुष्य, यह वस प्राण हैं और हत्या। शाब्दिक हिता-जिसमें न तो हिंसा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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