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________________ 1-124 'मी दुःख अप्रिय प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब अद्वेष बुद्धि पूर्वक विवशता में करना पड़े ऐसी प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है "तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी उससे यह नहीं कहा जा सकता गीता हिंसा की के भी प्रतिकल पाचरण नहीं करता वह महिंसक समर्थक है। अपवाद के रूप में हिंसा का समर्थन है। ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्ण ज्ञान में स्थित है वह नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें "सब योगियों में परम उत्कृष्ट माना जाता है16"। जैनागमों में भी उपलब्ध हो जाता है। - महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा की प्रति- अहिंसा का प्राधार-अहिंसा की भावना पादक मानते हैं उनका कथन है “गीतों की मुख्य के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ भ्रान्तशिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है-हिंसा बिना क्रोध, धारणाओं को प्रश्रय मिला है अत: उस पर पासक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें । सम्यक्रुपेण विचार कर लेना प्रावश्यक है। सत्व, रजस और तमस गुणों के रूप में घृणा, मैकेन्जी ने अपने 'हिन्दू एथिक्स' में इस भ्रान्त क्रोध आदि की अवस्थानों से ऊपर उठने को कहती विचारणा को प्रस्तुत किया है कि पहिंसा है (फिर हिंसा कैसे हो सकती है)17.1 डा. राधा के प्रत्यय का निर्माण भय के आधार पर हुआ है। कृष्णन भी गीतों को अहिंसा की प्रतिपादक मानते वे लिखते हैं' असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों है, वे लिखते हैं "कृष्ण अर्जुन को युद्ध लड़ने का को भय को दृष्टि से देखते हैं और भय की यह परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि धारणा ही अहिंसा का मूल है। लेकिन मैं वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहा है। युद्ध समझता हूँ कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैंकेन्जी की तो एक ऐसा अवसर प्रा पड़ा है, जिसका उपयोग इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के गुरू उस भावना की और संकेत करने के लिए आधार पर भी इस धारणा का निराकरण किया करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति युद्ध भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिये। यह सम्मान एवं समत्वभावना है । समत्वभाव से सहाहिंसा अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने नुभूति, समानुभूति एवं प्रात्मीयता उत्पन्न होती है उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न है, और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। पहिंसा जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध में प्रति उसकी जीवन के प्रति भय से नहीं जीवन के प्रति सम्मान हिचक प्राध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की से विकसित होती है । दशवकालिक सूत्र में कहा प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु मज्ञान और गया है-सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, वासना को उपज है । अर्जुन इस बात को स्वीकार कोई मरना नहीं चाहता अत: निर्ग्रन्थ प्राणवध करता है कि वह दुर्बलता और प्रज्ञान के वशीभूत (हिंसा) का निषेध करते हैं20 । वस्तुतः प्राणियों हो गया है । गीता हमारे सम्मुख जो प्रादर्श उप- के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा स्थित करती है, वह हिंसा का नहीं अपितु अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना करता है। जीवन के का है। कृष्ण अर्जुन को मावेश या दुर्भावना के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है । उत्तराध्ययन बिना, राग और द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले स्थापना करते हुए कहा गया है कि 'भय मोर गैर जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है181 से मुक्त साधक, जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी प्रात्मा के समान की समर्थक है। मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए जानकर, उनकी कभी भी हिंसा न करे1 । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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