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________________ कर्म का पूर्णतया विनाश होता है।" वही ज्ञानमरण का धनी केवलज्ञानी है। क्योंकि "कर्मणो विकल्यमात्मक वल्यस्त्येव" अर्थात् कर्म की विकलता ही घरमा का कैवल्य है । ज्ञानी जीव बहुत प्रकार के कर्मों को न तो करता है पर न भोगता है, परन्तु कर्म के बंध को और पुण्य पापरूपी कर्म के फल को जानता है। जैसा कि समयसार में लिखा है :वि कुors गवि वेयंइ गाणी कम्भाई वहुपवाराई । जागइ पुरण कम्मफलं बंध पुणे च पावं च ।।319।। जिस प्रकार नेत्र पदार्थों को देखता मात्र है उनका कर्ता और भोगता नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान, बंध और मोक्ष को तथा कर्मोदय धौर निर्जरा को जानता मात्र है उनका कर्ता और भोक्ता नहीं है । मात्मा को कर्ता मानते हैं वे मुनि होने पर भी लौकिक जन के समान हैं, क्योंकि लौकिक जन ईश्वर को कर्ता मानते हैं मोर मुनिजन प्रारमा को कर्ता मानते हैं । ये दोनों ही कारण वास्तविक तत्व की प्रतीति कराने में समर्थ नहीं । । " मनुष्य स्वयं अपने आप में दिव्य हैं। मनुष्य के हृदय से ऊंचा अन्य कोई देवता नहीं है : "4 दार्शनिक एवं विचारक शिन्तो का यह कथन सर्वथा उचित ही है क्योंकि मनुष्य अपने ज्ञान गुण की महत्ता न जानने एवं पहचानने के कारण ही वह पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। वास्तव में उसका पतन बाहर से नहीं, स्वयं उसके अन्दर से ही होता है। लोका कहते हैं कि राम ने रावण को मारा और कृष्ण ने कंश को, परन्तु यह कथन ठीक नहीं । 1. 2. 3. 4. Jain Education International 1-121 रावण अपनी दुर्बलताओं के कारण ही मारा गया, और कंश भी दुर्बलताओं से नष्ट कर दिया गया। मनुष्य को सोचना चाहिए कि मैं इस संसार में महान् हू, धन-वैभव आदि के क ररण नहीं; श्रपितु । ज्ञान-गुरण के वैभव के कारण मेरी महानता का कारण है, मेरी आत्मा है। क्योंकि काला ही परमात्मगुणों को प्राप्त करने में समर्थ है। प्रयासौ परमध्या; जब यह बात मतकरण को स्पर्श कर जायगी तो वह अपने श्रापको दिव्य प्रकाश से प्रकाशित कर लेगा । साधक वही है जो अपने को ही खोजने का प्रयत्न करता है। चीन के महान विचारक सन्त कन्फ्युसियस ने लिखा है "What the undeveloped man seeps is others what the advanced man seeks is himself अर्थात् प्रज्ञानी लोग दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं। ज्ञानी वही है, जो अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है । "मास्सं खु सदुल्ल" मानव जीवन दुर्लभ है । "बड़े भाग मानुस तन पावा ।" मानव जीवन प्राप्त कर यदि सदुपयोग नहीं किया तो जीते हुए भी मृतवत् है । श्रतः कितना भी हो सके अपनी ज्ञानगुण की अभिव्यक्ति कर प्रकाश की किरण को जग के सामने प्रकट करें, यही इस ग्रात्म प्रकाश का कर्तव्य है। यह मात्म प्रकाश ज्ञान से भिन्न नहीं ज्ञान से भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है, ज्ञान गुण में ही अन्य गुणों का समावेश हो जाता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता दृष्टि से कहा जा सकता है कि 'ज्ञानमये हि आत्मा जो सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट तथा जैनदर्शन का सर्वोच्च कथन है | प्रवचनसार-गा. 26 प्रवचनसार-गा. 68 शेयधिकार आप्तमीमांसा परि- 1-2- श्लोक :-4 दोषाऽऽवरयोनिनिःशेषाऽस्वतिशायनात् । वद्यया स्वहेतुभ्यो वहिरन्तमं लक्षयः ।। "There exists no highest deity outside the human mind. Man himself is Divine." For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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