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________________ '' 1-68 ने कहा था कि वस्तु के करण करण को जानो तब उसके स्वरूप को कहो । ज्ञान की यह प्रक्रिया प्राज के विज्ञान में भी है । इसका अर्थ है कि स्याद्वाद का चिन्तन संशयवाद नहीं है । अपितु इसके द्वारा मिथ्या मान्यताओं की अस्वीकृति और वस्तु के यथार्थ पक्षों की स्वीकृति होती है। विचार के क्षेत्र में इससे जो सहिष्णुता विकसित होती है वह दीनता व जी-हजूरी नहीं है, बल्कि मिथ्या अहंकार के विसर्जन की प्रक्रिया है । दर्शन व चिन्तन के क्षेत्र में अनेकान्त व स्याद्वाद की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही व्यावहारिक दैनिक जीवन में । वस्तुतः इस विचारधारा से अच्छे-बुरे की पहिचान जागृत होती है । अनुभव बताता है कि एकान्त विग्रह है, फ्रूट है, जबकि अनेकान्त मैत्री है, सधि है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि जिस प्रकार सही मार्ग पर चलने के लिए कुछ अन्तर्राष्ट्रीय यातायात संकेत बने हुए हैं । पथिक उनके अनुसरण से ठीक-ठीक चल कर अपने गन्तव्य पर पहुंच जाते हैं । उसी प्रकार स्वस्थ चिन्तन के मार्ग पर चलने के लिए स्याद्वाद द्वारा महावीर ने सप्तभंगी रूपी सात संकेतों की रचना की है। इनका अनुगमन करने पर किसी बौद्धिक दुर्घटना की आशका नही रह जाती । श्रतः बौद्धिक शोषण का समाधान है -- स्याद्वाद । Jain Education International महावीर के स्याद्वाद से फलित होता है कि हम अपने क्षेत्र में दूसरों के लिए भी स्थान रखें । अतिथि के स्वागत के लिए हमारे दरवाजे हमेशा खुले हों। हम प्रायः बचपन से कागज पर हाशिया छोड़ कर लिखते प्राये हैं, ताकि अपने लिखे हुए पर कभी संशोधन की गुंजाइश बनी रहे । जो हमने अधूरा लिखा है, वह पूर्णता पा सके । महावीर का स्याद्वाद जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें हाशिया छोड़ने का संदेश देता है। संग्रह करें अथवा घन व यश का' होना ही महावीर के अनेकान्त को सापेक्षता श्रावश्यक है। संविभाग की यही हमारे चरित्र की कुंजी है । चिन्तन को निर्दोष करता है। निर्दोष भाषा का व्यवहार होता है । सापेक्ष भाषा व्यवहार में हिमा प्रकट करती है । प्रहिंसक वृत्ति से अनावश्यक संग्रह और किसी का शोषण कहीं हो सकता। जीवन अपरिग्रही हो जाता है । इस तरह भ्रात्म शोधन की प्रक्रिया का मूलतन्त्र है -- महावीर का स्याद्वाद । चाहे हम ज्ञान प्रत्येक के साथ समझना है । समझ जागृत अनेकान्त हमारे निर्मल चिन्तन से अतः संसार के उस एक मात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा नमस्कार है, जिसके बिना इस लोक का कोई व्यवहार सम्भव नहीं है यथा--- जेण विणा लोयस्सवि वत्रहारों सञ्चहा न निवड | भुवणोकगुणो णमो मरणोगंतवायस्स || तस्स For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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