SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान महावीर और नारी जागति -मुनिश्री मोहनलालजी 'शार्दूल' पागला की लहर बिना किसी भेद-भाव के दिव्य-दृष्टि प्रदान की। भगवान् महावीर का युग जागरण का युम । भगवान् महावीर ने व्यक्ति को उच्च और श्रेष्ठ, पा। प्रत्येक क्षेत्र जागृति की सुर-सरिता से अभि- जाति तथा ऐश्वर्य से नहीं किन्तु सदाचार एवं सद्विक्त हुआ था। जैसे सूर्योदय होते ही समग्र वाता गुणों के आधार पर माना। धरण परिवर्तित हो जाता है. सब स्थानों में प्रकाश अपने सुख दुख का, उन्नति-अवनति का, प्रगति, पहुंच जाता है और समस्त प्राणी जाग उठते हैं. प्रतिगति और विकास एवं ह्रास का समग्र उत्तर. दायित्व व्यक्ति को सौंपा । उसको ही अपने जीवन बैसे ही भगवान महावीर को प्रात्मज्ञान होते ही बागरण की एक कमनीय लहर समग्र क्षेत्रों में दौड़ का निर्माता, अपने भाग्य का विधाता माना और उसे उच्च से उच्च प्रात्म-विकास के लिए उद्बुद्ध गई थी। जीवन का प्रत्येक स्पन्दन पुलकित और एवं उपयुक्त किया । झंकृत हो उठा था। सब जगह एक नई ज्योति प्रसारित और संचारित हो गई थी। जागरण की ____ भगवान महावीर ने प्रारिण-एकत्व तया प्रारिण समत्व की प्रतिष्ठा की। उन्होंने उद्घोषणा की महरी उत्तरोत्तर विशाल बनती गई थी। "प्राणी-प्राणी परम स्वरूप से एक हैं । सब समान तत्कालीन विपर्यय हैं और सबको आत्मिक-विकास के लिए सदृश अधिउस समय सबसे बड़ा विपर्यय मान्यताओं में कार है। उच्च-नीच की रेखा खींचकर उनमें भेदथा। सिद्धान्त बहत ही भ्रामक और विपरीत डालना महापाप है। बड़े-छोटे की दीवार खड़ी प्रचलित हो गये थे। आत्मा का तो कोई अस्तित्व करना असामाजिक और अमानवीय है। ही नहीं रह गया था । सब कुछ ईश्वर की मुट्ठी धर्म और ईश्वर के नाम पर मूक प्राणियों की में बन्द कर दिया गया था। अपने सुख दु ख का पाहूति देना धोर पाप है और निर्वल जीवों पर प्रधीश व्यक्ति नहीं, किन्तु भगवान था । मनुष्यों में भीषण अत्याचार है। इस प्रकार के विचार सप्रेषित किये जाते थे कि वे नारी जागति अपने का हीन-दीन और ईश्वर के हाथ की कठ भगवान महावीर की दृष्टि परम सूक्ष्म थी। पुतली समझे। जाति-गर्व और जाति-हीनता की उस में अन्तिम सत्य ही प्रतिविम्बित हुआ था। भेद कुत्सित धारणा भी बड़े विशाल दायरे में फैली हुई जो वास्तविक नहीं है, केवल कल्पना, प्रज्ञान और की। नारी को एक तुच्छ द सी से अधिक कुछ नहीं विभाव से प्रसत है. उनकी सम्मति में कभी नहीं माना जाता था। उसके सब अधिकार कुचल दिये उतर पाया। प्रात्मा में उन्हें कभी भेद दृष्टिगोचर नहीं हुमा । उन्होंने कहा- प्रात्मा आत्मा ही है। साह्मवीर को क्रान्ति 'न इत्यी, न पुरुषे, न अनहा" (प्राचारांग)-वह भगवान महावीर ने इन सब विषयों में अपने न स्त्री है, न पुरुष और न अन्य कुछ। बाह्य प्रशा. व साधना बल से अद्भुत क्रान्ति की।. नये क्षमताओं के प्राधार पर उसमें भेद नहीं होता। सिरे से सिद्धान्तों की स्थापना कर समस्त जनता को अन्तिम अर्थ में वह एक समान है। गये थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy