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________________ इन सब सन्दर्भों को पढ़ लेने के पश्चात् इस जिज्ञासा का उभरना स्वाभाविक ही है कि महावीर ने व्यक्ति की स्वतन्त्र - चेतना और प्रज्ञा-जागरण को इतना महत्व देते हुए भी धर्म-संघ में अपनी प्राज्ञा को सर्वोपरि कैसे माना ? इस परिप्रेक्ष्य में यह वाक्य कुछ आलोच्य हो जाता है। हालांकि इस वाक्य का पारम्परिक अर्थ हम यही करते हैं कि भगवान् ने कहा है मेरी श्राज्ञा में धर्म है ।" लेकिन लगता हैं हम मूल अर्थ से बहुत दूर चले गए हैं। इसका कारण है शब्द की अनेकार्थता मात्र शब्दात्मा को पकड़ने वाला उसकी गहराई में पहुंच नहीं सकता | यह सच है कि महावीर ने "आरणाए मामगं धर्म्म" का उद्घोष किया था। पर आलोच्य यह है कि "आखाए" से उनका अभिप्र ेत क्या था ? देश, काल की परिस्थितिवश शब्द का अर्थबोध भी बदल जाता है । वह उत्कर्ष श्रोर श्रपकर्ष के झूले में झूलता रहता है । " प्राणा" शब्द भी इसका अपवाद नहीं रह सका । " मारणा" का संस्कृत रूप आज्ञा बनता है जो "ज्ञांशू प्रवबोधने - "धातु से निष्पन्न हुआ है । अतः उसका मौलिक अर्थ ज्ञान ही होता है।" आसमन्तात् ज्ञायते अनया सा प्रज्ञा" । 'ज्ञान' शब्द भी इस धातु से व्युत्पन्न है । इस दृष्टि से आज्ञा और ज्ञान- दोनों एकार्थक हैं । अतः यह स्पष्ट है कि 'प्रज्ञा' का अर्थ केवल आदेश या अनुशासन ही नहीं, ज्ञान भी है । युगप्रधान वाचक प्रमुख प्राचार्य श्री तुलसी के सानिध्य में श्राचारांग सूत्र का स्वाध्याय करते समय यह प्रतीत हुआ कि हम इस लघु वाक्य का कितना विपरीत अर्थ करते पा रहे हैं । आचार्य श्री ने बताया कि 'प्राणाए' यह सप्तम्यन्त पद नहीं प्रपितु 'क्वा' प्रत्ययान्त पद होना चाहिए। अतः 'प्राज्ञा में' की अपेक्षा - प्राज्ञाय -- “ जानकर" यह मर्थं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । Jain Education International 1-41 भगवान् महावीर ने मुनि धर्म का प्रतिपादन करते हुए कहा- वे अन्तर और बाह्य ग्रन्थियों से उपरत मुनि मेरे धर्म को जानकर, उसका प्राजीवन सम्यक् अनुपालन करते हैं । वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं । पहले - - ' प्रज्ञा से मेरे धर्म का सम्यक् अनुपालन करें ।" यह अर्थ भी ज्ञानपरक ही है। यानी ज्ञानपूर्वक धर्म का अनुपालन करें। दूसरा अर्थ इस प्रकार किया है कि धर्म मेरा है, अतः उसका तीर्थंकर की प्रज्ञा से सम्यक् श्रनुपालन करू । --- " मामर्ग धम्मं " यह कर्म-पद है अतः 'आणाए ' का अर्थ आज्ञाय - जानकर ही तर्क-संगत हो सकता है । यदि 'आगाए' को सप्तम्यन्त-पद मानें तो भी उसका अर्थ यही हो सकता है कि मेरा धर्म श्राज्ञा में, अर्थात् ज्ञान में है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण ज्ञान है । अतः उक्त वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि मेरा धर्म आज्ञा में अर्थात् ज्ञान में है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण ज्ञान है | अतः उक्त वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि मेरा धर्म -- प्रर्थात् स्वभाव ज्ञान में है । उक्त सभी दृष्टियों से यह भ्रम निराधार सिद्ध हो जता है कि महावीर ने हुकूमत की भाषा में कहा कि मेरी आज्ञा में धर्म है। यदि उन्होंने ऐसा कहा होता तो निःसन्देह इस वाक्य की संघटना इस प्रकार होती -- " श्रारणाए मामगाए धम्मं," पर यहां 'मामर्ग' शब्द धर्म का विशेषण है न कि 'आगाए' का । भगवान् महावीर महान् अहिंसक थे । श्रतः प्रादेशात्मक भाषा का प्रयोग तो दूर, प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए वे उपदेश भी आवश्यक नहीं मानते थे । उन्होंने कहा " उद्दे शो पासगस्स नत्थि " -- दृष्टा को उपदेश की अपेक्षा नहीं । वे अपनी सम्पूर्ण जागृत चेतना से जन-जन के अन्तश्चन्तय को जगाना चाहते थे । अपनी प्रखर ज्ञान रश्मियों से विश्व चेतना को For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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