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________________ श्रमणविद्या-३ (परिवर्तनशील) हैं। स्मृतिमान तथा मेधावी इस विपरिणामी धर्म को जानते हैं। इष्ट धर्म न तो उनके चित्त को मथते है न अनिष्ट धर्म प्रतिघात (आहत) करते हैं। अनुरोध और विरोध विधुपित हो गए हैं और वे अब नहीं हैं। अशोक, विरज पद (निर्वाण) को जानकर भव को पार करने वाले ठीक से जानते हैं। ११. 'असोकं' अर्थात् अशोक को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। अशोक शब्द में नञ समास है और वह भी प्रसज्यप्रतिषेध नञ् समास है जिसका अर्थ है-सर्वथा शोक रहित। जिससे चित्त, उद्विग्न तथा उद्वेलित नहीं होता है। शोक, अन्तशोक, अन्तपरिशोक से चित्त शोकार्तता से चित्तपर्याकुल हो जाता है। किन्तु जिसका चित्त विमुक्त है उसे शोक संतप्त एवं उत्पीड़ित नहीं करता है। ऐसा चित्त अर्हत् का होता है। क्षीणास्रव अर्हत् का चित्त अशोक होता है। १२. विरजं अर्थात् रजराहित्य की अवस्था को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। तृष्णारहित चित्त ही निर्वाण को अधिगत करता हैतण्हायविप्पहानेन निब्बानस्सेव सन्तिके' तृष्णा ही सभी दोषों का कारण है, इसलिए भगवान् बुद्ध ने कहा है रागो रजो, न च पन रेणु वुच्चति, रागस्सेतं अतिवचनं रजोति । एतं रजं विप्पजहित्वा भिक्खवो, विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ।। दोसो रजो, न च पन रेणु ति वुच्चति, दोसस्सेतं अधिवचनं रजोति । एतं रजं विप्पजहित्वा भिक्खवो, विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ।। मोहो रजो, न च पन रेणु वुच्चति, मोहस्सेतं अधिवचनं रजोति । एतं रजं विप्पजहित्वा भिक्खवो, विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ।। राग रज है (अपवित्रता) है, रेणु अर्थात् धूलि को रज नहीं कहते हैं यह रज राग का ही अधिवचन है। द्वेष रज है (अपवित्रता) है, रज द्वेष का ही अधिवचन है। मोह रज है, रेणु रज नहीं है। यह मोह ही रज का अधिवचन है। राग, द्वेष तथा मोह रूपी रज (अपवित्रता) को छोड़कर अर्थात् वीतराग, वीतद्वेष एवं वीतमोह होकर बुद्ध के शासन में भिक्षुगण विहार करते हैं। लोभ, द्वेष तथा मोह-ये तीन ऐसा धर्म हैं जो चित्त को अशान्त करते हैं, इससे भीतर में भय उत्पन्न होता है, जिसे लोभीजन नहीं बूझते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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