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________________ बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा २५ (४) दान भगवान् बुद्ध ने दान को उत्तम मङ्गल कहा है। दान का अर्थ हैसम्प्रदान, उपायन, उदारता, दयालुता आदि। दान में त्याग की चेतना अनुस्यूत रहती है। दान को सम्प्रदान की संज्ञा दी जा सकती है जिसमें अतिशय दयालुता तथा उदारता की भावना के साथ संतोष की वृत्ति सम्पृक्त रहती है। दूसरे की हितैषिता के लिए स्व धन का समर्पण ही दान है। दान देने योग्य वस्तुओं में अन्न, पान, वसन, पुष्प, गन्ध, शयनासन, उपवेशनाशन, निवेसन तथा प्रदीप हैं। दान में अभिध्या नही होती, स्व का पूर्ण समर्पण होता है। दान उत्तम मङ्गल है क्योंकि यह विशेष फल के अधिगम का कारण है। दान देने वाला सबो के लिए प्रिय होता है। वह सबों का हृदयानुरञ्जक होता है। __ दान देने के पूर्व दाता हृदय से विप्रसन्न होता है, देने के बाद वह पूर्ण संतुष्ट रहता है, दिए जाने पर उसका हृदय उल्लास से भर जाता है। गृहीता का मन लोभ, लिप्सा, घृणा तथा मोह से मुक्त होता है। दान की महिमा अप्रमेय तथा अनिर्वचनीय है। दान की महिमा का निरूपण करते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा है कि दान से पूर्व सुमनस्क पुरुष, देते समय चित्त को प्रसन्न करे, देकर सन्तुष्ट होता है, यही दानयज्ञ की सम्पदा है। ब्रह्मचारियों का दान सम्पन्न क्षेत्र है। यदि कोई परिशुद्ध हो स्वयं अपने हाथों से दान देता है तो अपने और दूसरों के लिए यह दानयज्ञ महान् फल वाला होता है। इस प्रकार श्रद्धावान्, मेधावी मुक्तचित्त से दानयज्ञ कर दु:खरहित सुख संसार में उत्पन्न होता है पुब्बेव दाना सुमनो ददं चित्तं पसादये । दत्वा अत्तमनो होति, एसा यञस्स सम्पदा ।। वीतरागो वीतदोसो वीतमोहो अनासवो । खेत्तं यज्ञस्स सम्पन्नं सञताब्रह्मचारिनो ।। सयं आचरियत्वान दत्वा सकेभि पाणिभि । अत्तनो परतो चेसा यो होति महप्फलो ।। एवं यजित्वा मेधावी सद्धा युत्तेन चेतसा । अब्यापज्जं सुखं लोकं पण्डितो उपपज्जति ।। (अ.नि. सेखपरिहानिवग्ग) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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