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________________ निरौपम्यस्तव एवं परमार्थस्तव मार्ग एवं फल की व्यवस्था निस्स्वभावता एवं व्यवहृतसत्ता के अधार पर संसार एवं निर्वाण की व्यवस्था सुचारु रूप से चलती हैं। यदि स्वभावास्तित्व हो तो उक्त व्यवस्था असम्भव हो जायगी। नागार्जुन ने कहा है सर्वं च युज्यते तस्य शून्यता यस्य युज्यते । सर्वं न युज्यते तस्य शून्यं यस्य न युज्यते ।। (माध्यमिक कारिका आर्यसत्यपरीक्षा चतुविंशतितमं प्रकरणम् कारिका सं.१४) इसलिए व्यवहतसत्ता पर आद्भुत सम्भार मार्ग आदि समस्त मार्गों-जो प्रज्ञा एवं करुणात्मक है—कि व्यवस्था है। पुण्यसम्भार तथा ज्ञानसम्भार की व्यस्था है जिन की परिपूर्णता से बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। शून्यता एवं करुणा की परिपूर्णता होने पर फल की अवस्था आती है। त्रिविध काय माध्यमिक मार्ग का फल है जो सकलजगत के हितों का सम्पादन करते हैं। इसलिए नागार्जुन ने महाकरुणा पर आद्धृत धर्मकाय के स्वरूप को दृष्टि में रखकर स्तुति की है। प्रस्तुत लघुग्रन्थ, स्तवद्वय का सारांश निरौपम्य स्तव इस लघुग्रन्थ में २५ कारिकाएं हैं तथा धर्मकाय स्वरूप शून्यता का मुख्यरूप से वर्णन करते हुए भक्ति पूर्ण शब्दों द्वारा तथागत की स्तुति की गयी है। यथा कुदृष्टियों से ग्रस्त इस लोक के हित के सम्पादन में संलग्न एवं निस्स्वभावता के ज्ञाता तुझ जैसे अनुपम को नमस्कार है। हे नाथ! तुम्हारे बुद्धचक्षु के द्वारा (निस्स्वभावता को प्रत्यक्षत: ज्ञान द्वारा) किञ्चिद भी स्वभावास्तित्व नहीं देखा, वही तुम्हारी अनुत्तर दृष्टि है, क्योंकि वही तत्त्व दर्शन है। यहाँ (यथार्थ दर्शन क्षेत्र में) न तो बोध होता है और न ही बोधव्य होता है, क्योंकि कि सब निस्स्वभाव है। अहो! तुम उस धर्मता को जानते हो जो परम दुर्बोध है। तुम ने न तो किसी का उत्पाद किया और न ही किसी का निरोध किया। अर्थात् तुमने स्वभावत: न तो मार्गों का क्रम उत्पन्न किया और न ही क्लेशों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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