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________________ ६ निरौपम्यस्तव एवं परमार्थस्तव नागार्जुन की अन्य रचना हैं ७. महायानविंशिका ९. प्रतीत्यसमुत्पादहृदय ११. सूत्रसमुचय १३. सुहृल्लेख ८. अक्षरशतक १०. भावनाक्रम १२. भवसंक्रान्ति १४. स्तवगण स्तवगण या स्तोत्रगण में अनेक स्तव संगृहीत हैं। कोई षट्स्तवगण मानते हैं तो अन्य लोग चतुसस्तव बताते हैं । तिब्बती में छ: स्तव उपलब्ध हैं। यथा १. निरौपम्यस्तव ३. लोकोत्तरस्तव ५. अविचिन्तनीयस्तव इन स्तवों में भी शून्यता का प्रतिपादन है, परन्तु मूलमाध्यमिककारिका आदि की तरह युक्तियों द्वारा निस्स्वभावता की व्याख्या विस्तृत नहीं हैं। २. परमार्थस्तव ४. धर्मधातुस्तव ६. प्रज्ञापारमितास्तोत्र जब तक नागार्जुन के दर्शन की रूप रेखा का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक इन स्तवों का अभिप्राय भी अवगत नहीं हो सकता हैं । विषय समीक्षा निस्स्वभावता एवं प्रतीत्य समुत्पाद नागार्जुन का वास्तविक दर्शन है तथा वे इस दर्शन को बुद्ध का वास्तविक दर्शन मानते है । इसीलिए आचार्य ने इसी प्रतीत्यसमुत्पाद एवं निस्स्वभावता को लेकर बुद्ध की वन्दना सदा की हैं। निस्स्वभावतावाद Jain Education International वस्तुऐं क्योंकि हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न होती हैं, इसलिए वे निस्सभाव सिद्ध होती हैं। स्वभावसत्ता होने पर हेतु प्रत्ययों से उत्पत्ति असम्भव हो जाएगी । जो तुप्रत्ययों से उत्पन्न होगा, वह कृतक होगा जो कृतक स्वभाव का होगा, वह कृत्रिम स्वभाव का होगा, क्योंकि जो अकृत्रिम और निरपेक्ष स्वभाव का होता है, उसका हेतु प्रत्यय से उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। नागार्जुन ने मूल मध्यमककारिका के स्वभाव परीक्षा पञ्चदशमं प्रकरण में कहा कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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