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________________ श्रमणविद्या-३ ७. कला और विज्ञान के ज्ञान को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है- (सिप्पं)। जहाँ तक शिल्प का सम्बन्ध है, वह दो प्रकार का है-गृहशिल्प तथा अनागारिक शिल्प। गृहशिल्प में अनेक प्रकार शिल्पों का समावेश होता है। स्वर्णकारों का शिल्प, लौहकारों का शिल्प, किन्तु नैतिक दृष्टि से लाभकारी नहीं है। अनागारिक शिल्प में भिक्षुओं का परिस्कारों की गणना होती है। ये दोनों प्रकार के शिल्प दोनों लोकों के लिए तथा सबों के लिए मंगल एवं आनन्द के प्रापक हैं। कला मानव-संस्कृति की उपज है। मानव ने श्रेष्ठ संस्कार के रूप में जो कुछ सौन्दर्यबोध प्राप्त किया है। उसका अन्तर्भाव 'कला' शब्द में होता है। कला मनुष्य के भावजगत् को निरन्तर तरलता और सुन्दरता प्रदान करती है। कर्म की कुशलता ही कला है। मानव के द्वारा कला की प्रतिष्ठा हुई है और कला के द्वारा मानव ने आत्मचैतन्य एवं आत्मगौरव प्राप्त किया है। कला की निर्मिति में कलाकार को एक विशिष्ट प्रकार के आनन्द की उपलब्धि होती है और आनन्द दान ही अप्रतिम कला का उद्देश्य है। कला का एकमात्र लक्ष्य सौन्दर्य का अनुसन्धान तथा रसानुभूति है। कलाएँ विविध हैं किन्तु समस्त कलाएँ एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। कला वस्तु को सौन्दर्यप्रवण बनाती है और आँखों तथा कानों को आनन्द पहुँचाती है। कलाओं में काव्यकला, चित्रकला, संगीतकला, नाट्यकला तथा वास्तुकला आदि की गणना की जाती है। काव्यकला में ललित एवं कोमल भावप्रवण शब्दों की प्रधानता है, संगीत में स्वर की परन्तु श्रेष्ठ काव्य में गेयता का एवं सांगीतिक मधुरिमा का अन्तर्वेशन होता है। संगीत स्वतन्त्र कला है किन्तु काव्य में वह रस-परिपोषक बनकर ही सार्थक बन पाता है। चित्रकला की भाषा है रंग और रेखा चित्रकला आँखों को सम्मोहित करती है और अन्त:करण को आनन्द-सागर में निमज्जित कर देती है। किन्तु चित्रकला में श्रुतिमाधुर्य के अनुभव का भाव नहीं होता है। नाट्यकला एक ऐसी सार्वजनीन कला है, जिसमें संगीत, नृत्य, शिल्प और वाङ्मय सबकी संहिति है इसीलिए नाट्यकला जैसी सार्वजनीनता अन्य कलाओं में नहीं होती। नाट्यकला भिन्न रुचि वाले रसिकों के समाराधन का साधन हैं। कला की अनुभूति एकरस ओर अखण्ड है। कला सौन्दर्यानुभूति और रसास्वादन की प्रक्रिया को जन्म देती है। वास्तुकला भवननिर्माण की कला है। इन शिल्पों एवं कलाओं का ज्ञान मंगल का प्रापक है। अतः भगवान् बुद्ध ने शिल्प को उत्तम मंगल कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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