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________________ दो शब्द पालि व्याकरण परम्परा में मोग्गल्लानव्याकरण, कच्चायन - व्याकरण और सद्दनीति, इन तीन ग्रन्थ-रत्नों का नाम सबसे पहले लिया जाता है। बाद के आचार्यों ने साहित्य को समृद्ध करने एवं सूत्रों को बोधगम्य बनाने के लिए टीका ग्रन्थ आदि की रचना की। सींहल, बर्मा, स्याम आदि बौद्ध देशों में आचार्यों ने अनेक टीकायें, अनुटीकायें लिखीं। ये ग्रन्थ विद्वानों के साथ-साथ सामान्य जनों के लिए भी अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। आज भी इनका महत्त्व सर्वविदित है । भारतवर्ष में इस परम्परा का निर्वहन नहीं हुआ। नई रचना तो क्या होती, उन बौद्ध देशों की लिपियों में उपलब्ध ग्रन्थों का देवनागरी संस्करण भी अभी तक नही हो पाया है। इस प्रकार की उदासीनता से बौद्ध विद्या का विशेष कर पालि साहित्य का कितना उत्कर्ष होगा, यह विद्वाद्जन समझ सकते हैं। नाम, २ प्रस्तुत ग्रन्थ ' सद्दबिन्दु' में बीस कारिकायें हैं। जिसके अर्न्तगत, सन्धि, कारक, समास, तद्धित, आख्यात एवं कित प्रकरण की चर्चा उपलब्ध है। इसे 'पेगन' (वर्मा) के राजा 'क्य-चवा' ने बारह सौ पचास ईस्वी के आसपास राजमहल के स्त्रियों के प्रयोग हेतु बनाया था। 'गन्धवंस' नामक ग्रन्थ से भी ऐसी ही सूचना प्राप्त होती है । पुनः पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में स्याम देश के बौद्ध विद्वान सद्धम्मकीर्ति महाफुस्सदेव द्वारा उक्त ' ग्रन्थसारो नाम सद्दबिन्दु विनिच्छयो' नाम से इस ग्रन्थ पर एक अनुटीका की रचना की गई। ये टीका एवं अनुटीका ग्रन्थ कच्चायन व्याकरण पर आधारित हैं। प्रस्तुत संस्करण का आधार ग्रन्थ जर्नल आफ पालि टेक्स्ट सोसाइटी लन्दन है । ग्रन्थ का पाठ यत्र-तत्र बहुत ही अस्पष्ट एवं भ्रष्ट है। इतना है कि १. 'कच्चायन व्याकरण' की भूमिका में प्रो. तिवारी जी ने इसे १५ वीं शताब्दी के मध्य का ग्रन्थ बताया है। २. 'क्यच्वा - रज्ञो सद्दबिन्दु नाम पकरणं....... अकासि । गन्धवंश पृ. ६४ - ४ । तथा सद्दबिन्दु पकरणं..... अत्तनों मतिया क्यच्वा नाम रञ्ञा कता- पृ. ६३-२८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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