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________________ १० श्रमणविद्या-३ (जिन्होंने स्वयं बोधिलाभ किया है, आर्यश्रावक, बुद्ध के श्रावक। भगवान् बुद्ध के अनुसार तथागत, प्रत्येक बुद्ध, उभयतोभाग विमुक्त, प्रज्ञाविमुक्त, काय साक्षी, दृष्टिप्राप्त, श्रद्धाविमुक्त, धर्मानुसारी तथा गोत्रभू-आदर, पूजा, दान आदि के योग्य एवं साञ्जलि नमस्य हैं। पूजनीय जनों की पूजा दो प्रकार से की जाती है-१. आमिषपूजा-(अन्नपानादि से पूजा) तथा २. प्रतिपत्तिपूजा इन दोनों पूजाविधियों में प्रतिपत्ति पूजा श्रेयस्कर है। प्रतिपत्ति पूजा अपरिहार्य है। पूजनीय जन इसलिए संपूज्य होते हैं, क्योंकि वे सभी प्रकार के दोषों से सर्वथा मुक्त रहते हैं तथा सभी गुण धर्मों से समलंकृत रहते हैं। पूजनीय जनों की पूजा का फल अप्रमेय, अगण्य और दीर्घ कालिक कल्याण तथा आनन्द का प्रतिमान है। ४. प्रतिरूपदेसवासो च अर्थात् सुयोग्य क्षेत्र में निवास करना उत्तम मंगल है। प्रतिरूपदेश उसे कह सकते हैं जहाँ ज्ञानी, विवेकी, सच्चरित्र, सर्वभूतहितानुकम्पी तथा निर्वैर लोग रहते हैं। बौद्ध वाङ्मय में बोधगया, सारनाथ, श्रावस्ती, राजगृह, कुशीनारा, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, आदि को प्रतिरूपदेश कहा गया है क्योंकि इन देशों में भगवान् बुद्ध का निवास रहा है। इन स्थानों में रहने से अनतिक्रमणीय दृष्टि (दस्सनानुत्तरीय) अनतिक्रमणीय श्रवण (सवनानुत्तरीय), अनतिक्रमणीय लाभ (लाभनुत्तरीय), अनतिक्रमणीय शिक्षा (सिक्खानुत्तरीय) अनतिक्रमणीय परिचर्या (परिचरियानुत्तरीय) तथा अनतिक्रमणीय अनुस्मृति का लाभ होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रतिरूपदेशवास से मनुष्य के विचार समुन्नत होते हैं। उसकी वृत्तियां ऊर्ध्वगामिनी तथा पर्यवदात होती हैं। संस्कृत वाङ्मय के अनुसार धनिक, श्रोत्रिय, राजा, नदी तथा वैद्य, ये पाँच जहाँ नहीं रहते हैं, वहाँ एक दिन का भी निवास श्रेयस्कर नहीं है। ५. पुब्बे च कतपुञता पूर्व के जीवन में किया गया पुण्य उत्तम मङ्गल है-'पुब्बे च कतपुञता'। पूर्व में किये गये पुण्यकर्मों के परिणामस्वरूप मङ्गल की प्राप्ति होती है। अकस्मात् इसका सृजन या अधिगम नहीं होता। पुण्य धारे-धीरे सञ्चित होता है। इस संचित पुण्य को न तो कोई चुरा सकता है, न तो कोई बाँट सकता है। पूर्व के पुण्य के कारण अलभ्य एवं अप्राप्य वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं। यह पूर्वकृत संचित पुण्य देवों तथा मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली निधि है। देवगण जिन वस्तुओं की कामना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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