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________________ पूर्ववाक् भारतीय विद्वत्परम्परा ने बाह्य भौतिक विकास की उपेक्षा नहीं की, फिर भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग की निरन्तर खोज की। उसकी इस विकास यात्रा के अनेक पक्ष हैं। तन्त्रविद्या उसकी यात्रा का उत्कर्ष-बिन्दु है। तन्त्रविद्या का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत एवं गम्भीर है। इसमें दर्शन, विज्ञान, कला, साधना आदि सभी मानवीय पक्ष समाविष्ट हैं। यह एक परिपूर्ण सम्यग्दृष्टि है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास का यह उत्तम साधन हैं। इसमें सभी वर्ण और लिङ्ग के लोगों का प्रवेश अनुमत है। बुद्धत्व की प्राप्ति इसका चरम उद्देश्य है। शाक्यमुनि भगवान् बुद्ध ने करुणावश सर्वप्रथम बोधिचित्त का उत्पाद कर पारमिताओं की साधना द्वारा पुण्य एवं ज्ञान सम्भार का अर्जन किया। तदनन्तर उसके द्वारा क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का प्रहाण कर बुद्धत्व प्राप्त किया। उसके बाद विभिन्न आशय, धातु एवं बुद्धिक्षमता वाले विनेय जनों के अनुसार अनेक प्रकार की धर्म देशनाएं कीं। श्रीपर्वत पर धान्यकटक में भगवान् बुद्ध ने तन्त्रविषयक धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। जब विपुलगिरि में सामान्य सूत्रों का संगायन हो रहा था, उसी समय विमलसम्भवगिरि पर समन्तभद्र, मञ्जुश्री, गुह्यकाधिपति वज्रपाणि, मैत्रेयनाथ आदि बोधिसत्त्वों द्वारा महायान सूत्रों का संगायन हो रहा था और उसी समय समस्त तन्त्रों का संगायन भी वज्रपाणि द्वारा किया गया। इस तरह तन्त्रनय महायान के अन्तर्गत परिगणित है और विशुद्ध बुद्धवचन है। महायान के दो नय हैं, यथा-तन्त्रनय और पारमितानय। __ तन्त्रों की बुद्धवचनता के बारे में आधुनिक विद्वानों को अनेकविध सन्देह एवं विप्रत्तिपत्तियाँ हैं। बौद्ध तन्त्रों की अविच्छिन्न लम्बी परम्परा में विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक एवं मनीषी उत्पन्न हुए हैं, जिनकी निष्पक्षता के बारे में आज के विद्वानों को भी कोई विप्रत्तिपत्ति नहीं है। परम्परा के विद्वानों में इस प्रकार का सन्देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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