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________________ बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा श्रीलक्ष्मीरमणं नौमि गौरीरमणरूपिणम् । स्फोटरूपं यतः सर्वं जगदेतत् विवर्तते ।। वस्तुनिर्देशात्मकमङ्गल वहाँ होता है जहाँ कवि या नाटककार समस्त ग्रन्थ की वस्तु का निर्देश करता है पालि वाङ्मय के टीकाकारों, अट्ठकथाकारों, तथा वैयाकरणों ने त्रिरत्न के वन्दनारूप नमस्कारात्मक मङ्गल का विधान किया है। पालि वाङ्मय के प्रसिद्ध अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धद्योष ने समन्तपासादिका की गन्थारम्भकथा में त्रिरत्न की वन्दना इस प्रकार की है यो कप्पकोटीहि पि अप्पमेय्यं कालं करोन्तो अतिदुक्करानि । खेदं गतो लोकहिताय नाथो नमो महाकारुणिकस्स तस्स ।। असम्बुधं बुद्धनिसेवितं यं भवाभवं गच्छति जीवलोको ।। नमो अविज्जादिकिलेसजाल विद्धंसिनो धम्मवरस्स तस्स ।। गुणेहि यो सीलसमाधिपज्ञाविमुत्तिाणपभुतीहि युत्तो । खेत्तं जनानं कुसलस्थिकानं तमरियसंघं सिरसा नमामि ।। इच्चेवमच्चन्तनमस्सनेय्यं नमस्समानो रतनत्तयं यं । पुञाभिसन्दं विपुलं अलत्थं तस्सानुभावेन हतन्तरायो ।। आचार्य बद्धघोष ने त्रिरत्न-वदना के प्रयोजन का विवेचन करते हए लिखा है कि रत्नत्रय नमस्य हैं इसलिए मैने त्रिरत्न के प्रणाम के परिणामस्वरूप विपुल पुण्य का अधिगम किया है उसके आनुभाव से सभी विघ्न दूर हों और यह रचना विर्विघ्न सम्पन्न हो, टीकाकार शारिपुत्र ने संकल्पित कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसी आशय से त्रिरत्न की वन्दना की है 'अनन्तरायेन परिसमापनत्थं ति पयोजनं वेदितब्बं । स्थविर महाविजातावी ने 'कच्चायनवण्णना' में अन्तरायों, प्रत्यूहों एवं विघ्नों के विघातन के लिए ग्रन्थारम्भ में प्रणामादि का विधान किया है अन्तरायविघातत्थं मङ्गलादीनमत्थाय। तेसं गन्थानमारम्भे पणमादीनि वुच्चरे ।। संस्कृत बौद्धसाहित्य में भी आगम ग्रन्थों के परवर्ती ग्रन्थों के प्रारम्भ में शास्त्र के प्रति नमस्कारात्मक मङ्गल का विधान किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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