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________________ बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा . डॉ. ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन' मङ्गल की कामना मनुष्य के अन्त:करण में सर्वदा परिव्याप्त रहती है। मङ्गल शब्द मङ्ग अथवा मगि धातु से 'अलच्' प्रत्यय के योग से निष्पन्न है'मङ्गलेरलच्'। यह शब्द तीनों लिङ्गों में व्यवहृत होता है-मङ्गलम् (नपुंसकलिङ्ग), मङ्गलः (पुलिङ्ग), मङ्गला (स्त्रीलिङ्ग)। जिससे अभीष्ट की प्राप्ति होती है उसे मङ्गल कहते हैं—'मङ्गयते प्राप्यते अभीष्टमनेन इति मंगलम्। अथवा जिससे दुर्दृष्ट का अपसर्पण या निवारण होता है, उसे मंगल कहते हैं- 'मङ्गति अपसर्पति दुर्दृष्टमनेन इति मङ्गलम्'। प्रशस्त आचरण का अनुष्ठान तथा अप्रशस्त आचरण के परिवर्जन को ऋषियों तथा तत्त्वदर्शियों ने 'मङ्गल' कहा है-- प्रशस्ताचरणं नित्यं अप्रशस्तविवर्जनम् ।। एतच्च मङ्गलं प्रोक्तं ऋषिभिः तत्त्वदर्शिभिः ।। बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल शब्द का निर्वचन तथा अर्थावधारण विभिन्न रूपों में किया गया है-महन्ति इमेहि सत्ता ति मङ्गलानि इद्धिं वृद्धिं पापणातीति अत्थो' अर्थात् सत्त्व जिससे ऋद्धि, वृद्धि को प्राप्त करता है, उसे मङ्गल कहते हैं, अथवा 'मङ्गं पापं लुनाति छिन्दतीति मङ्गलं' के अनुसार जो पापों को काटता है, उसे मङ्गल कहते हैं, अथवा 'मङ्गति सत्ता विसुज्झन्तीति मङ्गलं' अर्थात् सत्त्व जिससे विशुद्धि को प्राप्त करते हैं उसे मङ्गल कहते हैं। महाकवि कालिदास ने लिखा है जो विपत्तियों का प्रतिकार करना चाहते हैं अथवा ऐश्वर्य तथा वर्चस्व का अधिगम करना चाहते हैं, वे मङ्गल का सेवन करते हैं-'विपत्प्रतीकारपरेन मङ्गलं निषेव्यते भूति समुत्सुकेन वा'। संस्कृत वाङ्मय के आचार्यों एवं महाकवियों ने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रन्थ के आदि मध्य तथा अन्त में मङ्गलाचरण के विधान का निर्देश किया है-ग्रन्थादौ ग्रन्थमध्ये ग्रन्थान्तं च मङ्गलमाचरणीयमिति शिष्टाचारः।' समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत् फलावश्यं भावनियमात्' तथा मङ्गलं कर्त्तव्यं समाप्तिफलकत्वात् (नील. १, मङ्गल, पृ.२) के अनुसार समाप्ति की कामना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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