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________________ (७) इस प्रकार हम देखते हैं कि अभिधर्म का बुद्धवचनत्व सिद्ध करने में आचार्य बुद्धघोष ने भरपूर प्रयत्न किया है और स्थविरवादी-परम्परा इसे बद्धवचन ही मानती है। परम्परा का आदर करते हुए मेरा स्पष्ट विचार है कि इसके बुद्धवचन होने में अभी भी सन्देह है और 'धम्म' के विकास-क्रम-स्वरूप इसकी स्थिति है। अधिक विचार करने पर यही स्पष्ट होता है कि अभिधर्म में उन्हीं प्रवृत्तियों का विस्तार प्राप्त होता है, जो बीज-रूप में सत्तपिटक में प्राप्त सद्धर्म में उपलब्ध हैं। इस कारणवश इसे बुद्धवचन के सन्निकट अथवा एक प्रकार से उसका ही विस्तार लेते हुए यदि बुद्धवचन कहा जाय तो इसमें विशेष कठिनाई नहीं परिलक्षित होती। बद्धघोष भी अभिधर्म शब्द की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-"तत्थ अभिधम्मो ति केनटेन अभिधम्मो? धम्मातिरेकधम्मविसेसटेन। अतिरेक-विसेसत्थदीपको हि एत्थ अभिसद्दो'। अर्थात् अभिधर्म, यह किस अर्थ का प्रतिपादक होने से अभिधर्म है? धर्म का अतिरेक अथवा धर्म-विशेष अर्थ होने के कारण। अभिधर्म में प्रयुक्त 'अभि' शब्द अतिरेक तथा विशेष अर्थ को प्रकाशित करनेवाला है। 'धर्म' को ही विशेष रूप से प्रकट करने वाला अभिधर्म है। इससे यही ज्ञात होता है कि धर्मरूपी सूत्रों के विशेष अर्थ इससे ज्ञात होते हैं। आचार्य असङ्ग ने चार अर्थों को व्यक्त करने में 'अभि' शब्द की सार्थकता प्रदर्शित की है:-"अभिमुखतोऽथाभीक्ष्ण्यादभिभवगतितोऽभिधर्मश्च"। अर्थात् निर्वाण के अभिमुख होने से, धर्म का विविध वर्गीकरण करने से, विरोधी मतों का अभिभव करने से एवं सूत्रों के सिद्धान्त का अनुगमन करने से। इन कारणों से यदि अभिधर्म को साक्षात् बुद्धवचन न भी माना जाय तो विशेष धर्म की अभिव्यक्ति करने के कारण बुद्धवचन के समान ही इसे माना जा सकता है। स्थविरवादी अभिधर्म के अन्तर्गत ये सात प्रकरण हैं:- धम्मसङ्गणि, विभङ्ग, धातुकथा, पुग्गलपत्ति , कथावत्थु, यमक, तथा पट्ठान। सर्वास्तिवादी अभिधर्मपिटक सर्वास्तिवादी अभिधर्मपिटक में भी सात ग्रन्थ परिगणित हैं, परन्तु ये ग्रन्थ स्थविरवादियों के ग्रन्थों के समान नहीं हैं। ये संस्कृत में अप्राप्त हैं तथा चीनी भाषा में सुरक्षित हैं। उन सात ग्रन्थों में से मुख्य ज्ञानप्रस्थान का चीनी-भाषा से संस्कृत में पुनरुद्धार प्रो० शान्तिभिक्षु शास्त्री ने विश्वभारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन, से किया था, जो १९५५ ई० में वहीं से प्रकाशित हुआ था। १. वहीं, पृ० १७-१८। २. महायानसूत्रालङ्कार, ११:३, मिथिला विद्यापीठ संस्करण, १९७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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