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________________ काशी और जैनश्रमणपरम्परा २१५ महादेव, महेश्वर, शंकर तथा त्र्यम्बक के रूप में स्मरण किया गया हैं, तथा इन्हें सर्वोत्कृष्ट देव कहा गया है। महाभारत में शिव को परमब्रह्म, असीम, अचिन्त्य, विश्वस्रष्टा, महाभूतों का एकमात्र उद्गम नित्य और अव्यक्त आदि कहा गया है। अश्वघोष के बुद्धचरित में शिव का 'वृषभध्वज' तथा 'भव' के रूप में उल्लेख हुआ है। विमलसूरि के ‘पद्मचरित' के मंगलाचरण के प्रसंग में एक 'जिनेन्द्र रूद्राणक' का उल्लेख आया हैं, जिसमें भगवान का रुद्र के रूप में स्तवन हैं 'जिनेन्द्र रुद्र पापरूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं, काम लोभ एवं मोह रूपी त्रिपुर के दाहक हैं, उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, संयमरूपी वृषभ पर वह आरूढ़ हैं, संसार रूपी करि (हाथी) को विदीर्ण करने वाले हैं, निर्मल द्धि चन्द्ररेखा से अलंकृत हैं, शुद्ध भाव रूपी कपाल से सम्पन्न हैं, व्रतरूपी स्थिर पर्वत कैलाश पर निवास करने वाले हैं, गुणगण रूपी मानवमुण्डों के मालाधारी हैं, दसधर्म रूपी खट्वांग से युक्त हैं। तप: कीर्तिरुपी गौरी से मण्डित हैं, सात भयरूपी डमरू को बजाने वाले हैं, (सर्वथा भयरहित) मनोगुप्ति रूपी सर्वपरिकर से वेष्टित हैं, निरन्तर सत्यवाणी रूपी विकट जटा कलाप से मण्डित हैं तथा हंकार मात्र से भय का विनाश करने वाले हैं। १. रामायण-- बालकाण्ड-४५,२२-२६,६६,११-१२,६,१,१६,२७ २. महाभारत द्रोण-७४,५६,६१,१६९,२९ ३. बुद्ध चरित-१०,३,१,९३ ४. पापान्धक निर्मश मकरध्वज लोभ मोहयुरम् । तपोभरं भूषितांगं जिनेन्द्र रुद्रं सदावन्दे ।।१।। संयम वृषभारुढ़, तपडग्रमह तीक्ष्ण शूलधरम् । संसार करिनिदार, जिनेन्द्र रुद्रं सदावन्दे ।।२।। विगलभति चन्द्ररेख विरचित सील शुद्धभावकयालम् । व्रतायल शैल निलयं जिनेन्द्र रुद्रं सदा वन्दे ।।३।। गुणगण नरशिरमालं दशध्वजोड्भूत खट्वाङ्गभ । तपः कीर्ति गौररचितं जिनेन्द्ररुद्रं सदा वन्दे ।।४।। सप्तभयडाम डमरुकनद्यं अनावरत प्रकटसंदोहम् । मनोबद्ध सर्पपरिकरं जिनेन्द्र रुद्रं सदा वन्दे ।।५।। अनवरत सत्य वाचा विकट जटा मुकुट कृत शोभम् । हुंकार भयविनाशं जिनेन्द्ररुद्रं सदावन्दे ।।६।। ईशानशयनरचितं जिनेन्द्र रुद्राष्टकंललितं मे । __भावं च यः पठति भावशुद्धस्तस्य भवेज्जगति संसिद्धिः ।।७।। (आधार- डॉ. राजकुमार जैन, वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यतायें-अनेकान्त वर्ष १९ अंक १-२) जिनेन्द्र रुद्राष्टक से आठ श्लोक होने चाहिए, परन्तु सात श्लोक ही मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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