SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत कथा-साहित्यः उद्भव, विकास एवं व्यापकता १७५ प्राकृत कथाओं का विषय एवं उसकी व्यापकता जैन अङ्ग आगम, उपांग व टीका-साहित्य के प्रचारार्थ प्राकृत कथासाहित्य में अभूतपूर्व विकास की धारा दिखाई देती है। कथा के माध्यम से प्राकृत कथाकारों ने समाज और जीवन की विकृतियों पर जितना गहरा प्रहार किया है, उतना साहित्य की अन्य विधाओं के द्वारा कभी सम्भव नहीं था। समाज और व्यक्ति के विकारी जीवन पर चोट करना मात्र ही इन कथाओं का लक्ष्य नहीं था, अपितु विकारों का निराकरण कर जीवन में सुधार लाना तथा आत्मा के कल्याण के साथ-साथ जीवन को सर्वाङ्गीण सुखी बनाना भी था। कथानक संयोजना में जैन कथाकार पुराणोक्त महापुरुषों के जीवन-चरित, मुनिधर्म-तत्त्व, उपदेश अलौकिक तत्त्वों का निरूपण तथा सिद्धान्त विवेचना को भी सीधे-सीधे अथवा अवान्तर कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते रहे हैं। परम्परा से चली आ रहीं सामाजिक मर्यादाओं की व्यवस्था का अतिक्रमण कर नये एवं युगानुरूप सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों को स्थापित करने का सफलतम प्रयोग जैन-कथाकारों ने अपने दृढ़ आचार का पालन करते हुए किया है। उदारतापूर्ण मानवीय एवं साहसिक दृष्टिकोण को अपना कर नूतन प्रवृत्तियों और मौलिक भावनाओं से समाज को अनुप्राणित किया। यही कारण है कि उन्होंने अपनी सृजनात्मक कल्पना-शक्ति से लौकिक-कथा के आवरण में धर्मदर्शन व आध्यात्मिकता का पुट देकर इसे रोचक बनाया। यद्यपि जैनधर्म प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाला मार्ग है। क्योंकि कथाकारों की शुष्क उपदेशात्मक शैली का प्रभावोत्पादक शैली के बिना कोई मूल्य नहीं था। किन्तु युग के अनुरूप आचार्यों ने, कथाकारों ने धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों मात्र से बोझिल नहीं किया, वरन् आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित करने के लिए उपदेशात्मक शैली के साथ शृंगारिक शैली का भी सहारा लिया। लोक मानस में प्रचलित आदर्शों को, चाहे वे वैदिक साहित्य के विषय ही क्यों न हों, जैनकथाकारों ने अपने कथानक का विषय बनाया। और उन कथानकों को जैनधर्म के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया, जिसमें वे अधिकतम सफल कहे जा सकते हैं। जैन साहित्य की उपलब्धियों और विशेषताओं का आकलन करने वाले विदेशी विद्वान् विन्टरनित्ज ने कहा हैं कि "श्रमण-साहित्य का विषय मात्र ब्राह्मण, पुराण, निजन्धरी कथाओं से नहीं लिया गया हैं, बल्कि लोक-कथाओं, परीकथाओं से ग्रहीत हैं । जैन कथा-साहित्य की व्यापकता एवं १. दीजिन इन दी टिस्ट्री आफ इण्डिन लिटरेचर सम्पादित मुनि जिनविजन, पृ.५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy