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________________ प्राकृत कथा-साहित्यः उद्भव, विकास एवं व्यापकता १७३ होता है, उन्हें कथा के आवश्यक अङ्ग या तत्त्व कहा जाता है। वे निम्नाङ्कित हैं १. कथानक (कथासूत्र) २. पात्र (चरित्र-चित्रण) ३. संवाद (कथोपकथन) ४. देशकाल का चित्रण ५. शैली ६. उद्देश्य किसी भी कथा का कथासूत्र पात्रों के संवादों से आगे बढ़ता है। कथाकार अपने उद्देश्य को लेकर पात्रानुसार सांस्कृतिक एवं भौगोलिक परिवेश में जीवन के उतार-चढ़ाव सहित विभिन्न पक्षों का चित्रण कुशल शैली से करता है, तभी उसकी कथा सफल व पूर्ण कही जाती है। अत: उक्त लक्षण कथाग्रन्थों में आवश्यक व अनिवार्य कहे गये हैं। प्राकृत कथा-साहित्य विपुल मात्रा में प्राप्त होता हैं। जैन-आचार्यों, मनीषियों द्वारा लिखे गये कथा-ग्रन्थों में कथाओं के शिल्प, विषय, पात्र, भाषा, शैली आदि के आधार पर विभिन्न रूपों में भेद-प्रभेद की चर्चा की गई है। दशवैकालिक-नियुक्ति, कुवलयमालाकहा, लीलावईकहा, धवला, समराइच्चकहा के अतिरिक्त पउमचरियं, महापुराण आदि ग्रन्थों में कथाओं के भेदों का उल्लेख किया गया है। विषय निरूपण की अपेक्षा से कथा के तीन भेद किए जाते हैं १. अकथा- मिथ्यात्व के उदय से जिस कथा का निरूपण किया जाये, अकथा कहलाती है। यह संसार के परिभ्रमण को बढ़ाने वाली होती है। २. कथा- संयम, तप, त्याग आदि के द्वारा स्वयं को परिमार्जित कर लोक-कल्याण की भावना से किए जाने वाली कथा का निरूपण कथा या सत्कथा है। ३. विकथा- प्रमाद, कषाय, राग-द्वेष, स्त्री आदि की विकृति से युक्त निरूपित कथा विकथा कही जाती है। __ कथा के विषय की अपेक्षा से चार भेद भी किए गए हैं। . १. (क) अत्थकहा, कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा दशवैकालिक, गाथा १८८ नियुक्ति पृ. २१२ (ख) एत्थ सामनओ चत्तारि कथाओ हवन्ति। तं जहा अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा, संकिण्णकहा य समराइच्चकहा, पृ.२ (ग) महापुराण (जिनसेन), प्रथम परि.११८-११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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