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________________ १६४ श्रमणविद्या-३ द्रव्यपर्यायात्मक माना है। वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता को तो जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यदर्शन भी स्वीकार करते हैं परन्तु जैनदर्शन के अनेकान्त का प्रमुख आधार वस्तु में विरोधी युगलों का होना है। वे विरोधी युगल हैं १. शाश्वत और परिवर्तन २. सत् और असत् ३. सामान्य और विशेष ४. वाच्य और अवाच्य। द्रव्य में इस प्रकार के अनन्त विरोधी युगल होते हैं। उन्हीं के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ है। अनेकान्त के लक्षण के सम्बन्ध में आ. अकलंकदेव ने अष्टशती नामक भाष्य में लिखा है कि वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने का नाम अनेकान्त है । आचार्य अमृतचन्द ने समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में लिखा है कि जो वस्तु तत्स्वरूप है वही अतत्स्वरूप भी है। जो वस्तु एक है वही अनेक भी है। जो वस्तु सत् है वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रथम एक ही वस्तु में वस्तुत्व में निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकर्मशत करना ही अनेकान्त है। __अनेकान्त जैनदर्शन का प्राण तत्व है। वह चिन्तन के धरातल पर स्वस्थ मानसिकता का सञ्चार कर लोगों में सहिष्णुता का विकास करता है। हमें अपने दृष्टिकोण के साथ-साथ दूसरों की दृष्टि का भी समादर करना चाहिए। जहाँ पक्षपात की दुरभिसंधि व्याप्त है वहाँ तत्त्व का चिन्तन समीचीन नहीं हो सकता। जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि होती है। भगवान् महावीर ने जन जीवन में व्याप्त विषमता की खाई समाप्त करने के लिए अनेकान्त दृष्टि पर बल दिया। श्रद्धा और तर्क दोनों की मर्यादाओं को दृष्टिगत करते हुए वस्तु का विमर्श करना चाहिए। हेतुगम्य पदार्थों में तर्कबुद्धि का प्रयोग युक्तिसंगत है परन्तु अहेतुगम्य पदार्थों में श्रद्धा भावना को ही स्थान देना चाहिए क्योंकि स्वभाव में तर्क नहीं चलता। अनेकान्त दृष्टि ने परस्पर विरोध की भूमिका में खड़े हुए विचारों को समन्वय के सूत्र में स्थापित कर मानव समता की सृष्टि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। १. आचार्य महाप्रज्ञ : जैनदर्शन और अनेकान्त पृ. ८। २. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकान्तः।। अष्टशती, अष्टसस्त्री पृ. २८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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