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________________ जैन श्रमण परम्परा और अनेकान्त दर्शन डॉ. अशोक कुमार जैन सहायक आचार्य, जैन विद्या एवं तुलनात्मक-दर्शन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं नागौर, राजस्थान भारतवर्ष की दो परम्परायें बहुत प्राचीन हैं। एक है श्रमण परम्परा और दूसरी है वैदिक परम्परा। श्रमण परम्परा निर्वृतिमूलक है। समत्व की साधना द्वारा राग, द्वेष और मोह रूप वैभाविक परिणतियों का उपशमन कर निःश्रेयस की प्राप्ति इसका परम लक्ष्य है। श्रमण परम्परा इस बात को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करती है कि मनुष्य को आत्मिक विकास के लिए किसी की कृपा या दया की आवश्यकता नहीं उसमें स्वयं ही अनन्त शक्ति विद्यमान है। संयम, तप और त्याग के माध्यम से स्वयं में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति को उद्घाटित किया जा सकता है। श्रमण परम्परा में जैनधर्म और दर्शन का प्रमुख स्थान है। प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में केशी वातरशना आदि जैन श्रमण मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। भागवत का उल्लेख है कि 'भगवान ऋषभ ने श्रमणों का धर्म बताने के लिए ही जन्म धारण किया था। भगवान् ऋषभ की परम्परा में महावीर पर्यन्त अन्य २३ तीर्थंकर हुए जिनमें भगवान पार्श्व और महावीर दोनों ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। जैनधर्म के श्रमण धर्म, आर्हत् धर्म और निम्रन्थ धर्म ये तीन प्राचीन नाम हैं। बाद में जैन नाम का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। धर्म, संस्कृति और दर्शन ये तीनों मानव जीवन के विकास की सीमा रेखायें हैं। इन तीनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। तीनों का समन्वित १. ऋग्वेद १०:१३६:१-४ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान पृ. १३ २. वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत भगवान् परमर्षिभिः प्रसादतो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दिशतकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावतार''। श्री मद्भागवत ५:३:२०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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